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कुछ अनकहे शब्द, कुछ अनछुई कल्पनाएँ

१- दिल ने कहा कुछ काम कर लूँ , कुछ सुहानी ये शाम कर लूँ । उस दिल के तार बज उठे, लबों पर गीत सज उठे। सब ठीक चल रहा था, लेकिन उसकी ख़ुशी से कोई जल रहा था। वो जलनखोर उसकी ख़ुशी कोई देख न पाया , जाकर अपने जैसों को बुला लाया। सभी ने उजाड़ दिया उसके चमन को, ज़रा सी दया न आई उन बेरहम को। दिल जूझता रहा, कुछ न सूझता रहा। कोई उसके काम न आया, बुलाने पर भी कोई अवतार न आया। क्या कहें बड़ी मुश्किल है, ये जूझने वाला कोई और नहीं मेरा ही दिल है। २- हे मानव, हे ब्रह्मपुत्र ! उठो जागो होश में आओं, अपने रक्त में लौह कि धारा बहाओ इस धरती की करुण पुकार दिल को बींधे जाती है, सोई आँखों को हर पल मींचे जाती है। छाई रहती थी जहाँ शस्यश्यामला आज धुल वहाँ भरी है, राष्ट्र की गरिमा गाथा आज धूमिल पड़ी है। उठा लो अपने हाथों में एक गौरवमयी लेखनी और लिख डालो नयी तक़दीर इसकी, अभी जो धूमिल पड़ी है बना डालो नयी तस्वीर इसकी।

प्राकृतिक दोहन के दुष्परिणाम

विश्वस्तर पर हर एक देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हैं। प्राकृतिक प्रकोपों को बढ़ावा आधुनिकता के चलते ज्यादा है। ग्लाशियारों का पिघलना, कभी अपार बाढ़ कभी सूखा तो कभी कभी विचित्र बीमारियों से कई समस्याएँ बढाती जा रही हैं। आज चाँद पर बसने कि तैयारी करने वाली मानव सभ्यता पृथ्वी पर ही जिस प्रकृति से पोषित है , उसी कि दुर्गति करने पर उतारू है। परिणामतः वह उसी का दुष्परिणाम भुगत भी रहा है। हमारे शास्त्रों - पुराणों एवं वेद ही नहीं विज्ञानं भी स्वीकारता है कि क्षिति- जल-पावक-गगन-समीर यानि पृथ्वी-पानी-अग्नि-आकाश- और वायु जैसे पांच तत्वों से हमारा जीवन है। फिर भी नदियों का प्रदूषण, जंगलों,-वनों की कटान, भूमि, और उत्खनन, वायु तरंगों तक का असीमित दोहन ही नहीं, नाना कारण ऐसे हैं जिन पर ध्यान न देने की वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। सच पूछिए तो ये मानवीय क्रूरता का बदला रूप ही हैं जो प्राकृतिक क्रूरता के रूप में सामने आने लगी हैं। पिछले कुछ समय से विश्व के ज़्यादातर देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा से घिरे हुए हैं। कहीं पर बादलों का फटना मुसीबत का कारण बन रहा है, तो कहीं बाढ

वही ढाक के तीन पात

एक वक्त से भारत में समान लैंगिक अधिकार दिया जाने कि कवायद चल रही है। समान जीवनयापन का अधिकार , समान शिक्षा का अधिकार , समान अवसरों का अधिकार , समांन उत्तराधिकार का अधिकार सहित न जाने कितने ऐसे समान अधिकार हैं जिन्हें लिपिबद्ध किया जाना आसान नहीं हैं। महिलाओं को पुरुषों के समान हक दिलाने की जो गतिविधियाँ चलाई जा रही है , उनमें एक और कवायद जुड़ गयी है "समान अभिभावकत्व के अधिकार की "। इस कानून के तहत जहाँ पहले गोद लिए गए बच्चे पर पहला हक सिर्फ पिता का होता था , वहीँ अब ये अधिकार समान रूप से माँ को भी प्राप्त होगा । ये ईसाईयों , यहूदियों , पारसियों , और मुसलमानों पर लागू होने वाले गार्जियंस एंड वार्ड एक्ट १८९० का संशोधित रूप होगा । संसदीय समिति ( विधि और न्याय ) इस कानून से सम्बंधित सुधार विधेयक का अध्ययन कर रही है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में बेटी को अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हक प्राप्त है। फिर भी आश्चर्य है की कानूनन अधिकार होने के बावजूद aaj भी उसे पराया धन कहा जाता है। जीवन भर पिता के घर से भेंट लेते रहने के बदले में उसे पैतृक संपत्ति में बराबर का हक न

मेघ और वसुधा का संगम

मेघ घिर के आते हैं अपने दोस्तों के संग अपनी वसुधा से फाग खेलने को , नभ से जल गिराते हैं होरी में गोरी को रंग देने को । ठिठोली कर गरजते हैं न मानों तो चमकते हैं , हैं आतुर अपनी सजनी को रंग में भिगोने को । । वसुधा का भी तो क्या कहना , मचलती है देख कर सजना , है भर लेना चाहती वो सारे पलों को अपने आँचल में एक सपना संजोने को । चहकने लगी देखकर होली कि रंगत , प्रीत के रंग में रंग जाने कि है हसरत , दिल ख़ुशी से झूम उठा है पूरा जगत तैयार इनमें खोने को । वसुधा कि ख़ुशी का है नहीं कोई सानी , मेघ की सुन्दर छटा ही है काफी धरती को लुभाने को । नभ में बजने लगी शहनाई देखो मेघ की बारात आई , सभी के होंठों पर है वसुधा की ख़ुशी छाई , मेघ वसुधा का है दिन आज एकाकार होने को । हैं आतुर अपनी सजनी को रंग में भिगोने को । ।

ये जगह नहीं है मेरे काम की .........

इंजीनियर , डॉक्टर , वैज्ञानिक , प्रबंधक , बैंकिंग या फिर शिक्षक बनना हमेशा से ही युवाओं का टशन रहा है । कोई समाजसेवक बन कर जहाँ समाज के हितों के लिए कुछ करना चाहता है तो साथ ही नाम कमाने की ललक भी उनमें जाहिरी तौर पर होती है । जो पढ़ने - लिखने में मेधावी हैं , वो कुछ अपने बल पर तो कुछ धन और सिफारिश का सहारा लेकर अपना मक़सद हासिल कर लिते हैं । लेकिन एक सवाल जो एक अरसे से चला आ रहा है , वो भी राजनीतिक गलियारे से कि क्यों एक कर्मठ और निष्ठावान युवा राजनीति से कोसों दूर रहता है ? क्यों वो नहीं चाहता कि वो भी राजनेता बनकर देश के लिए कुछ करे ? क्यों वो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने का ख्वाब नहीं देखता ? इसका जवाब यदि ढूँढा जाय तो जो वजह सामने निकालकर आती है वह है राजनीति में व्याप्त अनाचार , धूर्तता , हैवानियत , और लालच । सत्ता पाने की सनक में न तो कोई रिश्ता देखता है , ना ही किसी अनाचार की परवाह करता है । फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना माना जाता है तो २००१ में आई एस शंकर निर्देशित फ़िल्म "नायक : द रियल हीरो " में स्पष्ट दिखाया गया था कि महाराष्ट्र

ये कैसी चुप्पी ?

भोपाल गैस कांड का वांछित और यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन का मालिक वारेन एंडरसन का अपने गुनाहों से बच निकलना दुर्भाग्य पूर्ण है । साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण है , तत्कालीन सरकार का उसके सुरक्षित निकलने का रास्ता साफ़ करना । लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार और वर्तमान एवं भविष्य के वातावरण में दूषित गैस रुपी ज़हर घोलने वाला आख़िर क्यों और कैसे तत्कालीन शासन - प्रशासन की दया का पात्र बन गया ? ७ जून , १० को भोपाल की एक अदालत में आये फैसले में वारेन एंडरसन का कहीं नामोनिशान नहीं है । ये कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि जिस कंपनी का पूरा कर्ता - धर्ता ही वारेन था और जो उसी कंपनी में हो रही सुरक्षा गडबडियों को नज़रन्दाज करने का कसूरवार था , वही इतनी बड़ी दुर्घटना के परिणामों से बच गया ! इसके पीछे न्यायिक प्रक्रिया ओं या न्यायाधीशों को जिम्मेवार ठहराना शायद उचित नहीं , क्योंकि अदालत तो सिर्फ धारा , साक्ष्य व गवा

प्रेम : एक विवादित तथ्य

आज हमारे भारतीय समाज में ग़रीबी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, धन का असमान वितरण एवं राजनीतिक उथल-पुथल के अलावा एक और मुद्दा है , जो अपना ज्वलंत रूप धारण कर चुका है। इस मुद्दे का नाम है, " प्रेम की अवधारणा । जी हाँ, सदियों से चला आ रहा ये गतिरोध अब अपनी विकराल स्थिति में आ गया है। " पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ , पंडित हुआ न कोय । ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥ " हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि कबीरदास ने भले ही अपने दोहे में लिख दिया हो, किन्तु हमारे समाज के कुछ गणमान्य इसे मानने को तैयार ही नहीं। वेद - पुराणों में जगह - जगह पर प्रेम विवाह का उल्लेख मिलता है , जिनमें कृष्ण - रुक्मिणी , अर्जुन - सुभद्रा , दुष्यंत - शकुंतला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आज जो लोग प्रेम विवाह की सार्थकता पर संदेह करते हैं तो निश्चित रूप से वे इन वेद - पुराणों की वास्तविकता पर प्रश्नचिन्ह उठाते हैं। अव्वल तो प्रेम विवाह को नकारा जाता है , और अगर इसे मान्यता मिल भी जाए तो जाति एवं गोत्र पर सवाल उठने लगते हैं। कुछ गणमान्य लोगों का मानना है की विवाह सजातीय तो हों लेकिन सगोत्रीय न हों।