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'विश्व पुस्तक दिवस' आज, क्यों मनाते हैं किताबों का यह दिन? जानें

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कहते हैं किताबें इंसानों के सबसे सच्ची और पक्की दोस्त होती हैं। पुराने ज़माने में अन्य भाषाओं की किताबों का इच्छित भाषाओं में अनुवाद कर उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाक़ायदा एक अनुवाद विभाग भी होते थे। आज भी दुनिया भर में हर साल लाखों किताबें प्रकाशित होती हैं। ये किताबें हर वर्ग के मन मुताबिक टेस्ट के अनुरूप होती हैं। इनमें कभी काल्पनिकता की भरमार होती है तो कभी सच को आइना दिखते विषय भी होते हैं।  आज इंटरनेट के युग में जबकि छोटे बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों के हाथ में मोबाइल ने जगह ले ली है, और उनमें अक्षरों की अपेक्षा गेम्स और वीडियो हावी हो गए हैं, किताबों की महत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ा है।  फर्जी जानकारियों से भरे यूट्यूब चैनलों का सामना करने के लिए आज तथ्यों से भरपूर किताबों के लिखे जाने, प्रकाशित होने और पढ़े जाने की जरुरत सबसे ज्यादा है। अब आप खुद ही याद कीजिये कि आखिरी बार आपने या आपके बच्चों ने कक्षा से इतर कौन सी किताब पढ़ी थी! फ़िलहाल, आज पूरा विश्व किताब दिवस मना रहा है। आइये जानते हैं, क्या है 'विश्व पुस्तक दिवस' और इसकी महत्ता  यूनेस्को हर साल 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक और

बाल दिवस पर विशेष - "हिन्दू-मुसलमान एकता की जय"!

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तो हुआ यूँ कि एक बार धर्म द्रोही चाचा नेहरू बनारस में अपनी मोटर पर बैठे कहीं जा रहे थे.. बनारस तब आज का क्योटो नहीं था और अंग्रेजों ने चौड़ीं सड़कों का विकास करने के लिए तंग गलियों का तोड़ी फोड़ीकरण नहीं किया था.. खैर, एक जगह चाचा ने देखा कि एक जुलुस उनकी तरफ चला आ रहा है.. जुलुस करीब पहुंचा तो चाचा ने एक करिश्मा देखा.. देखा कि जुलुस में मंदिरों के टीका-तिलकधारी पुजारियों के साथ मस्जिद के मुल्ला-मौलवी बड़ी उमंग के साथ के झंडा लिए हुए आगे बढ़े जा रहे हैं.. झंडे में जगमगाते अक्षरों में लिखा है- "हिन्दू-मुसलमान एकता की जय!" नेहरू बड़े खुश! साथ ही उनको यह जानने की खुजली भी हुई कि आखिर "माजरा क्या है?". वह अपने साथ देवदास गाँधी समेत कुछ अन्य लोगों की मण्डली के साथ मोटर से उतर जुलुस में शामिल हो लिए.. भीड़ कुछ आगे बढ़ी.. चाचा को जुलुस में मौजूद जुलूसियों से पता चला कि यह एकता 'शारदा विधेयक' की मुखालफत में हुई है.. शारदा विधेयक 14 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी न करने के बारे में था..  तो दोनों मजहबों के ठेकेदार लड़कियों के मासिक धर्म के बाद होने वाले विवाह को धर्म-विरुद्

हिन्दी दिवस

रेल ट्रेन क्रिकेट हॉकी बैटमिंटन टेनिस प्लेट टीवी रेडियो मोबाईल सिम बैटरी लैपटॉप अलमारी बरामदा प्लेटफार्म ऐसे जाने कितने अ–हिन्दी शब्द हैं जो हिन्दी में परिवर्तित शब्द या बोलचाल की भाषा में अनूदित करने पर हास्यपरक वाक्य (शब्द नहीं) बनाकर उपहास में उड़ा दिए जाते हैं। उदाहरण –लौहपथगामिनी धुकधुक यंत्र, लंब दंड गोल पिंड धर पकड़ फेंक मार प्रतियोगिता जैसे लम्बे–चौड़े फितूर गढ़ कर उपहास बनाया जाता है। जबकि कोई भी ट्रेन, क्रिकेट के लिए ऐसे फितूर सुनने/पढ़ने में नहीं आते। कुछ लोगों की शिकायत है कि हिन्दी साहित्य समझ नहीं आते, वे कठिन हैं। जबकि जिस भाषा के बारे में हमें जानना होता है उसके हर लिखे पढ़े को हम इसलिए चाट जाते हैं कि इससे शब्दकोश में वृद्धि होगी और जिस भाषा को हम जानना चाहते हैं (अक्सर मजबूरन, शौक भी अपवाद हो सकते हैं) उसके लिए सम्बन्धित भाषा के साहित्य, अख़बार, पत्रिका आदि को पढ़ते –लिखते हैं। हमें वह रुचिकर लगने लगता है। मुझे अक्सर लगता है कि विविधता लिए भी भाषा साहित्य और बोलचाल के लिए आवश्यक होती है, फ़र्क नहीं पड़ता कि वह हिन्दी है या अंडमान की कोई बोली! साथ ही कारोबारियों, वैज्ञ

फ़र्क और मेरी गहरी फ़िक्र

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मिस म्यांमार Thuzar Wint Lwin, अपने देश के लिए सच्चे मायनों में समर्पित। जिसने मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में अंतिम इक्कीस में पहुंच कर खुद बखुद क्विट कर लिया। अपने साथ वह यह पोस्टर लाईं थीं, और दुनिया भर से आग्रह किया कि वे उनके देश के लिए प्रार्थना करें। थूज़र विंट ल्विन ने 16 मई को दुनिया भर से मिलिट्री जुंटा के खिलाफ बोलने का आग्रह किया, जिसके सुरक्षा बलों ने 1 फरवरी को तख्तापलट कर सत्ता हथिया लिया और तबसे अब तक (16 मई तक) तमाम प्रदर्शनकारियों की हत्या कर डाला था। मिस म्यांमार ने एक वीडियो सन्देश में कहा "हमारे लोग मर रहे हैं और हर दिन सेना उनपर गोली बरसा रही है"। उन्होंने कहा, "मैं सभी से म्यांमार के बारे में बोलने का आग्रह करना चाहूंगी। तख्तापलट के बाद से मिस यूनिवर्स म्यांमार के रूप में, मैं जितना कर सकती हूं, कर रही हूं, बोल रही हूं"। थूजर विंट ल्विन म्यांमार की दर्जनों हस्तियों, अभिनेताओं, सोशल मीडिया प्रभावितों और खेल के लोगों में से हैं, जिन्होंने तख्तापलट का विरोध किया है।  आज जब ओलंपिक में किसानों के बच्चों ने अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज़ कराई है, मुझे उनमें

जब देश में 'ट्रैक्टर' लाने के लिए अपनी ही पार्टी का चुनाव निशान भूल बैठे थे नेहरू!

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दुनिया भर में अपने समय और अपने गुजरे दौर के सर्वकालिक नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू उस वक़्त भुखमरी और विभाजन का दंश झेल रहे भारत के खेतों को अधिक अनाज उत्पादन योग्य बनाने का दृढ़ संकल्प लिए देश की कृषि का आधुनिकीकरण करने की दिशा में आगे बढ़ने का विचार कर रहे थे. भुखमरी से निपटने और अन्न की पैदावार बढ़ाने की समस्या से निपटने के लिए वह दुनिया भर के नामी गिरामी कृषि और भोजन प्रबंधन विशेषज्ञों से बातचीत कर रहे थे. अधिक अन्न उपजाने की इस क़वायद में नेहरू को जो मशीन सबसे जरुरी लगी, वह था ' ट्रैक्टर' .  नेहरू यह समझ रहे थे कि उपजाऊ जमीनों का एक प्रमुख हिस्सा सिंध और पंजाब बंटवारे के बाद पाकिस्तान जा चुके हैं. ऐसे में अन्न के संकट को फौरी तौर पर दूर करने के लिए एक निर्धारित योजना, प्रबंधन और समय सीमा की बेहद आवश्यकता है.  200 वर्षों से अधिक के समय में अंग्रेजी हुकूमत ने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देश की पारम्परिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ कर रख दी थी. लेकिन भविष्यदृष्टा नेहरू ने मौजूदा सरकारों की तरह अपने भूतकाल को कोसने की बजाय आगे चलना तय किया.  विदेशी मुद्राओं से खाली राजकोष से भिज्ञ नेहरू

कोरोना संकट के दौरान बेरोजगार और बेघर हुए दुनिया भर के मजदूर, क्या एक होकर मांगेंगे अपना हक़?

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कहते हैं जहाँ समस्याएं अपनी हद पार करने लगती हैं, समाधान अपना रास्ता वहीं से निकालता है, जैसे दाब जब अपने ऊपर रखी किसी भारी चीज से ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है, वह उसे पलट कर सीधा बाहर निकल आता है, ठीक वैसे ही। ऐसा ही कुछ हुआ औद्योगिक क्रांति के गढ़ संयुक्त राज्य अमेरिका में। जहाँ पूजीपतियों की औद्योगिक आकांक्षाओं ने अपने मातहत काम करने वाले मजदूरों को बस मशीन समझा और बेहद ख़राब परिस्थितियों में भी उन्हें काम करते रहने को मजबूर करते रहे। 19 वीं शताब्दी के दौरान, औद्योगिक क्रांति के चरम का नुकसान संयुक्त अमेरिका के हजारों पुरुष, महिलाएं और बच्चे अपनी असामयिक मौत और अपने अंगभंग से पूरी कर रहे थे। ये कामगार 15 से १८ घंटे बिना किसी सुरक्षा सुविधा के लगातार काम करते थे, लेकिन इनके काम की कमाई का हिस्सा पूंजीपतियों की जेब और उनकी ऊँची महत्वाकांक्षाओं में खर्च हो जाता था। हाड़तोड़ मेहनत के बदले कामगारों के हिस्से आती भूख, बीमारी और अकाल मौत।  इन अमानवीय स्थितियों को समाप्त करने के प्रयास में, 1884 में फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन्स (जो बाद में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, य

लौटा है प्यार

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नीलम ने दिन भर के काम के बाद थक कर घर आते ही देखा, सामने दीवार पर टंगी घड़ी हल्की सी तिरछी हो गई है और उसके पास टंगी पेंटिंग के पीछे छिपकली पूंछ हिलाती अपने कारनामे का बखान कर रही है.. काम की फ्रस्ट्रेशन हाथ पर आ टिकी और हाथ की फाइल पेंटिंग पर दे मारी. लेकिन चिरकुट छिपकली पर कोई आंच नहीं आई, वह दनदनाती फिर से घड़ी के पीछे जा छिपी. चिड़चिड़ करती नीलम ने फिर फाइल वाला फार्मूला घड़ी पर ट्राय करना चाहा लेकिन नुकसान के आभास ने उसके हाथों को ऐसा करने से रोक दिया. प्यास लगी है  और घर में कोई पानी देने वाला भी नहीं, हम्मह्! ये भी कोई जिंदगी है? जहां घर लौटने पर कोई बात तक करने वाला न हो! दिन भर की ग्रह दशा किसे सुनाऊँ? किससे पता चले कि पड़ोस के घर की लड़की का अफेयर उसके पड़ोस वाले वर्मा जी के बेटे से चल रहा है? किससे पता चले कि वर्मा अंकल खुद किसी ज़माने में अपनी सोसाइटी के रांझणा हुआ करते थे? खैर अब खुद ही मटके से पानी उड़ेला और एक साँस में गटक गई.. नीलम पिछले 6 साल से दिल्ली में अकेली रह रही है. कॉलेज की पढ़ाई के बाद प्यार में जब दिल टूटा तो खुद को बिजी रखने और अपनी रोनी सूरत घ