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स्मृति ईरानी के बहाने कुछ अन्य गंभीर मामलों व विपक्ष की नपुंसकता पर एक नज़र

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कल से सोशल मीडिया व मुख्यधारा की मीडिया में अमेठी सांसद स्मृति ईरानी की एक तस्वीर फ़्लैश हो रही है। वह अमेठी में अपने कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह की अर्थी को कांधा दे रही हैं जिसे उनके घर पर आधी रात को किसी से गोली मार दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार व पुलिस महकमा सुरेंद्र सिंह व उनके परिवार को जितनी जल्दी हो सके, न्याय दिलाने का भरोसा दिला रहा है। अपने कार्यकर्ता के प्रति अमेठी की सांसद स्मृति ईरानी का यह जुड़ाव वास्तविक है या सिर्फ दिखावा, इसपर बहस को अगर एक किनारे रख दिया जाए तो यह तस्वीर स्मृति ईरानी व भाजपा की छवि को एक सुन्दर कोना देती है।  इस बीच यहीं सोशल मीडिया पर मैंने कई जगह पढ़ा जिसमे रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या व नजीब की गुमशुदगी में स्मृति व भाजपाइयों का हाथ होने पर आलोचना की जा रही है और अमेठी में स्मृति का अपने एक कार्यकर्ता की अर्थी को कांधा देना महज 'सियासी नौटंकी' कहा जा रहा है। अब आते हैं मुद्दे की बात पर! मेरा साफ़ तौर पर मानना है कि रोहित वेमुला और नजीब का मुद्दा 'एक विशेष विश्वविद्यालय' का मुद्दा बनकर रह गया। जिसपर छात्र नेताओं ने अपनी तरफ से भ

भारतीय मीडिया ! लब आज़ाद हैं या....?

आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। बोलने और विचार अभिव्यक्ति की आज़ादी के चाहने वालों को इस दिन की ढेर सारी शुभकामनायें!  देश में लोकतंत्र के महापर्व का दौर है, इसी दौर में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस का आना भी क्या खूब है। एक तरफ भारत के मतदाता अपने पसंदीदा नेता को देश की कमान सौंपने के लिए प्रतिबद्ध है वहीं इस प्रतिबद्धता के निर्माण-निर्णयन में मीडिया की भूमिका सबसे अहम् हो जाती है। यूँ तो हालिया वक़्त में प्रेस के तमाम माध्यम हैं लेकिन बात अगर त्वरित संचार की हो तो टीवी न्यूज़ चैनल और सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया से बेहद आगे है। ऐसे में इन दोनों का यह दायित्व तो बनता ही है कि वे निष्पक्ष, बिना किसी के प्रभाव या दबाव में आये जनता तक सच को पहुंचाए। कमाल की बात यह भी कि इस वर्ष विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस का विषय है- ''चुनाव और लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका'। मीडिया में ऐसा तब तक होता भी रहा जब तक उदारवाद और उसके जरिये पूंजीवाद ने इसे एक समाज सेवा से उद्योग नहीं बना दिया। 1990 के दशक में मीडिया का पूंजीकरण होने से चली यात्रा अब केवल व्यवसाय रह गई है। जहाँ न तो जनहित