स्मृति ईरानी के बहाने कुछ अन्य गंभीर मामलों व विपक्ष की नपुंसकता पर एक नज़र


कल से सोशल मीडिया व मुख्यधारा की मीडिया में अमेठी सांसद स्मृति ईरानी की एक तस्वीर फ़्लैश हो रही है। वह अमेठी में अपने कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह की अर्थी को कांधा दे रही हैं जिसे उनके घर पर आधी रात को किसी से गोली मार दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार व पुलिस महकमा सुरेंद्र सिंह व उनके परिवार को जितनी जल्दी हो सके, न्याय दिलाने का भरोसा दिला रहा है। अपने कार्यकर्ता के प्रति अमेठी की सांसद स्मृति ईरानी का यह जुड़ाव वास्तविक है या सिर्फ दिखावा, इसपर बहस को अगर एक किनारे रख दिया जाए तो यह तस्वीर स्मृति ईरानी व भाजपा की छवि को एक सुन्दर कोना देती है। 

इस बीच यहीं सोशल मीडिया पर मैंने कई जगह पढ़ा जिसमे रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या व नजीब की गुमशुदगी में स्मृति व भाजपाइयों का हाथ होने पर आलोचना की जा रही है और अमेठी में स्मृति का अपने एक कार्यकर्ता की अर्थी को कांधा देना महज 'सियासी नौटंकी' कहा जा रहा है। अब आते हैं मुद्दे की बात पर! मेरा साफ़ तौर पर मानना है कि रोहित वेमुला और नजीब का मुद्दा 'एक विशेष विश्वविद्यालय' का मुद्दा बनकर रह गया। जिसपर छात्र नेताओं ने अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की कि उसे जनता से जोड़ा जाए लेकिन वे नाकाम रहे। जाति व धर्म की बिसात पर रोहित व नजीब मामले को दिल्ली के जंतर-मंतर, कुछ खास सड़कों से आगे आम जनता से जोड़ने में न केवल विपक्ष नाकाम रहा बल्कि रोहित व नजीब के साथी भी इस अहम् मामले को जनता से जोड़ नहीं पाए। यही वजह है कि इन मामलों में स्मृति की छवि बेदाग बनी रही। वहीँ अमेठी में अपने कार्यकर्ता से इस तरह जुड़ना सीधे पब्लिक को हिट कर गया। 15 सालों से अमेठी के सांसद रहे राहुल गाँधी को अपने बीच कभी न देखने वाले अमेठी के लोगों ने स्मृति को अपने बीच पाया। अब अगर स्मृति ईरानी विकास के कुछ मामलों में भले ही चूक कर जाएं वह जनता का भरोसा इस मायने में जीतने में कामयाब रही हैं उनकी सांसद उनके साथ हैं, और गलतियां तो इंसानों से ही होती है, हो सकता है इस बार चूक हो गई हो अगले बार नहीं होगी। 

एक और मामला है सूरत के एक कोचिंग सेंटर में जलकर मरे 22 बच्चों का, जिनकी अर्थियों को कांधा देने कोई भी बड़ा नेता नहीं पहुंचा। भारी बहुमत से सत्ता में वापसी करने वाली बीजेपी का कोई नेता उन मासूमों के घर पहुंचा हो ऐसी कोई तस्वीर नज़र नहीं आई। कारण यह है यहाँ ये नेता खुद कठघरे में खड़े हैं कि पिछले ढाई दशकों से प्रदेश में उनकी ही सरकार है फिर अब तक अग्निशमन विभाग के पास उत्कृष्ट बचाव साधन क्यों नहीं हैं? घटना स्थल से महज 3 किलोमीटर दूर दमकल को मौके पर पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा का समय लगता है और टीन शेड के नीचे तप रहे मासूमों को जान बचाने के लिए चौथी मंजिल से कूदना पड़ता है। यह जवाबदेही शासन-प्रशासन दोनों की है और यही वजह रही कि रविवार को गुजरात गए नव निर्वाचित प्रधानमंत्री गांधीनगर, अहमदाबाद तो जाते हैं, रात रुकते हैं लेकिन सूरत पहुंच कर मौके का मुआयना कर पीड़ित परिवारों से मिलने की जहमत नहीं उठाते हैं। जनता के इस आक्रोश की भरपाई करने वह अगले दिन अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी पहुँचते हैं और काशी विश्वनाथ मंदिर में माथा टेक फिर से जनता के दुलारे बन जाते हैं। इसके पीछे एक और वजह यह भी जो मुझे समझ में आती है कि सूरत दुर्घटना को मीडिया में दिखाया तो गया, कोचिंग संस्थान के कुछ पदासीनों व म्युनिस्पैलिटी के कुछ अधिकारियों पर कानूनी कार्रवाई हो रही है लेकिन किसी भी मेनस्ट्रीम मीडिया में सरकार से इस बाबत कोई सवाल नहीं पूछे गए। पब्लिक भी मौन रही। 

एक और दुर्घटना 22 मई को घटी  मुंबई के फेमस अस्पताल बीवाईएल नायर हॉस्पिटल में। मेडिकल की दूसरे वर्ष की छात्रा पायल तड़वी ने अपनी कुछ कुछ सवर्ण सीनियर्स के तानों से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली। पायल तड़वी को सरकार द्वारा संचालित मुंबई सेंट्रल के BYL नायर अस्पताल में 22 मई को फांसी पर लटका हुआ पाया गया। उनके परिवार का आरोप है कि उनकी सीनियर हेमा आहूजा, भक्ति मेहर और अंकिता खंडेलवाल, पायल पर लगातार जातिगत टिप्पणी करती थी और व्हाट्सअप ग्रुप पर उसका मज़ाक बनाती थीं। पायल ने जब प्रशासन से इसकी शिकायत की तब उसे अनसुना कर दिया गया। पहले वर्ष से इस तरह की यातना झेल रही पायल ने आख़िरकार मौत का रास्ता चुन लिया। आज अस्पताल का प्रशासन इस बात से इंकार कर रहा है कि पायल की तरफ से ऐसी कोई शिकायत दर्ज करवाई गई थी। हॉस्पिटल की छात्र-छात्राएं अब पायल को इंसाफ दिलवाने के लिए एकजुट हैं और परिसर में प्रदर्शन कर रहे हैं। तीनों आरोपी पुलिस की गिरफ्त से अब भी दूर हैं। सत्ता के नशे में चूर नवनिर्वाचित राजनीतिक दलों ने अब तक इस मामले को अपनी कुर्सी की पेटी से बांध रखा है। जब कभी मुंबई दौरा होगा तो वहां भी घूम ही आएँगे। 

दिलचस्प यह भी है अब तक विपक्ष ने भी इन सभी मामले पर अपना मुंह नहीं खोला है और जनादेश के फैसले को न्यायोचित ठहरा रहा है!

टिप्पणियाँ

  1. इन सभी घटनाओं पर आपके विचार बिल्कुल सही हैं बीना जी । रही बात सवाल पूछने की तो वह दौर अब बीत चुका लगता है । अब तो जिसके पास (जनादेश की या कोई और) ताक़त है, वह सवालों से परे है । जाने कहाँ गए वो दिन जब निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकार सच को सामने लाने के लिए जूझते थे और किसी भी ताक़तवर व्यक्ति पर सवाल दाग़ने से हिचकिचाते नहीं थे ।

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    1. पत्रकारिता को व्यवसाय बना लिया गया है, अब व्यवसाय में मुनाफा देखें या आदर्श!

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