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अंतर्द्वंद: एक मनःस्थिति

पेन कुछ लिखने से पहले ही थम गई है।  आज तारीख क्या है, एकपल को याद ही नही आया।   निश्चित तो अभी भी नहीं हूँ कि आज कौन सी तारीख मेरे जीवन से कम हुई है।  हंसती हूँ, खिलखिलाती हूँ, सामान्य रहने की हर मुमकिन कोशिश करती हूँ, कुछ हद तक सफल भी हो जाती हूँ, पर कब तक? अंदर से धीरे धीरे खोखली हो रही हूँ। लगता है कि जैसे कुछ भीतर ही भीतर मोम की तरह पिघल रहा है, तपिश भी महसूस कर रही हूँ लेकिन इसका ताप बाहर नहीं आने देती।    त ड़प कर, उलझ कर किसी तरह सुलझने की कोशिश करती हूँ। मन को तो सारी बंदिशों से मुक्त करा चुकी हूँ पर तन को, जो अभी भी मेरे परिवार के ऋणों का बंदी है, उसे कैसे आजाद कराऊँ! बड़े भाई से कुछ दिनों से बहुत नाराज़ हूँ, पर उनकी चिंताएं जो मेरे प्रति हमेशा से रही हैं, उन्होंने जो मेरे लिए किया है वो एक पिता ही अपने बच्चों के लिए कर सकता है, जिनके अहसानों ने मेरी स्वतंत्रता को क़ैद कर रखा है, उससे स्वयं को कैसे उबारु। पिता जी की जागरूक उदासीनता जिस पर अब तनिक भी विश्वास नहीं रहा है, उस पर कैसे मैं स्वयं उदासीन हो जाऊं !  माँ, जो मुझे समाज के दायरों में बाँधने का भरसक प्र