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यह कलियुग है जहाँ राम नहीं रावण है प्रासंगिक!

पूरा भारत रावण का एक त्यौहार 'विजयदशमी यानी दशहरा' मना रहा है. हाल ही में भारत में हुए बड़े राजनीतिक बदलाव के बाद 'राम-रावण' का सन्दर्भ एक ज्वलंत मुद्दा बन चुका है. हर किसी को यहाँ राम की तलाश है और रावण पर अपना क्रोध जताने वालों की संख्या न तो अँगुलियों पर गिनी जा सकती है और न ही यह संभव है. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि आज के दौर में राम से ज़्यादा रावण प्रासंगिक है तो मुमकिन है ऐसा कहने वाला आज के परिवेश में 'राष्ट्रद्रोही' की श्रेणी में रख दिया जाय. फिर भी सत्य और तथ्य को नकारा जाना भी आने वाली पीढ़ी के प्रति किसी बड़े अन्याय से कम नहीं होगा. राम की प्रासंगिकता क्यों समाप्त हो रही है इससे पहले रावण क्यों प्रासंगिक है,इस पर विचार कर लेना आवश्यक है. पहली बात तो यह है कि राम-रावण की कथा त्रेतायुग की है जिसमे जीवन के हर क्षेत्र के मानदंड आज के युग यानी कलियुग से एकदम विपरीत थे. राजतन्त्र में वही राजा सबसे प्रभावशाली माना जाता था जिसने विश्व पर विजय हासिल कर ली हो. रावण ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए विश्व विजय करने की ठानी जो उस वक़्त के राजनीतिक मान