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जून, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये जगह नहीं है मेरे काम की .........

इंजीनियर , डॉक्टर , वैज्ञानिक , प्रबंधक , बैंकिंग या फिर शिक्षक बनना हमेशा से ही युवाओं का टशन रहा है । कोई समाजसेवक बन कर जहाँ समाज के हितों के लिए कुछ करना चाहता है तो साथ ही नाम कमाने की ललक भी उनमें जाहिरी तौर पर होती है । जो पढ़ने - लिखने में मेधावी हैं , वो कुछ अपने बल पर तो कुछ धन और सिफारिश का सहारा लेकर अपना मक़सद हासिल कर लिते हैं । लेकिन एक सवाल जो एक अरसे से चला आ रहा है , वो भी राजनीतिक गलियारे से कि क्यों एक कर्मठ और निष्ठावान युवा राजनीति से कोसों दूर रहता है ? क्यों वो नहीं चाहता कि वो भी राजनेता बनकर देश के लिए कुछ करे ? क्यों वो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने का ख्वाब नहीं देखता ? इसका जवाब यदि ढूँढा जाय तो जो वजह सामने निकालकर आती है वह है राजनीति में व्याप्त अनाचार , धूर्तता , हैवानियत , और लालच । सत्ता पाने की सनक में न तो कोई रिश्ता देखता है , ना ही किसी अनाचार की परवाह करता है । फिल्मों को समाज का वास्तविक आइना माना जाता है तो २००१ में आई एस शंकर निर्देशित फ़िल्म "नायक : द रियल हीरो " में स्पष्ट दिखाया गया था कि महाराष्ट्र

ये कैसी चुप्पी ?

भोपाल गैस कांड का वांछित और यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन का मालिक वारेन एंडरसन का अपने गुनाहों से बच निकलना दुर्भाग्य पूर्ण है । साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण है , तत्कालीन सरकार का उसके सुरक्षित निकलने का रास्ता साफ़ करना । लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार और वर्तमान एवं भविष्य के वातावरण में दूषित गैस रुपी ज़हर घोलने वाला आख़िर क्यों और कैसे तत्कालीन शासन - प्रशासन की दया का पात्र बन गया ? ७ जून , १० को भोपाल की एक अदालत में आये फैसले में वारेन एंडरसन का कहीं नामोनिशान नहीं है । ये कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि जिस कंपनी का पूरा कर्ता - धर्ता ही वारेन था और जो उसी कंपनी में हो रही सुरक्षा गडबडियों को नज़रन्दाज करने का कसूरवार था , वही इतनी बड़ी दुर्घटना के परिणामों से बच गया ! इसके पीछे न्यायिक प्रक्रिया ओं या न्यायाधीशों को जिम्मेवार ठहराना शायद उचित नहीं , क्योंकि अदालत तो सिर्फ धारा , साक्ष्य व गवा