प्राकृतिक दोहन के दुष्परिणाम

विश्वस्तर पर हर एक देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हैं। प्राकृतिक प्रकोपों को बढ़ावा आधुनिकता के चलते ज्यादा है। ग्लाशियारों का पिघलना, कभी अपार बाढ़ कभी सूखा तो कभी कभी विचित्र बीमारियों से कई समस्याएँ बढाती जा रही हैं। आज चाँद पर बसने कि तैयारी करने वाली मानव सभ्यता पृथ्वी पर ही जिस प्रकृति से पोषित है , उसी कि दुर्गति करने पर उतारू है। परिणामतः वह उसी का दुष्परिणाम भुगत भी रहा है।
हमारे शास्त्रों - पुराणों एवं वेद ही नहीं विज्ञानं भी स्वीकारता है कि क्षिति- जल-पावक-गगन-समीर यानि पृथ्वी-पानी-अग्नि-आकाश- और वायु जैसे पांच तत्वों से हमारा जीवन है। फिर भी नदियों का प्रदूषण, जंगलों,-वनों की कटान, भूमि, और उत्खनन, वायु तरंगों तक का असीमित दोहन ही नहीं, नाना कारण ऐसे हैं जिन पर ध्यान न देने की वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। सच पूछिए तो ये मानवीय क्रूरता का बदला रूप ही हैं जो प्राकृतिक क्रूरता के रूप में सामने आने लगी हैं।
पिछले कुछ समय से विश्व के ज़्यादातर देश किसी न किसी प्राकृतिक आपदा से घिरे हुए हैं। कहीं पर बादलों का फटना मुसीबत का कारण बन रहा है, तो कहीं बाढ़, भूस्खलन और जंगल में आग जैसी दुर्घटनाएँ हो रही हैं। हालांकि ये आपदाएं बिना किसी अनुमान और तात्कालिक कारणों से हो रही हैं फिर भी इसकी पृष्ठभूमि हम इंसानों द्वारा ही अनवरत रूप से तैयार की गई है। इसपर बिना किसी लागलपेट के सोचना होगा।
जब लेह में बादल फटा तो कई लोगों की जानें गईं, कई लापता हो गए और जो बचा वि कुछ ही पल में घर से बेघर हो चुके थे। अपने घर से और अपने लोगों से बिछड़े हुओं को अब या तो भगवान का सहारा है या फिर सरकार का। लेह में फटे बादल से उमड़े पानी ने हज़ारों घरों,अस्पतालों, सरकारी भवनों व आकाशवाणी केंद्र को अपनी गिरफ्त में लेकर तबाह कर दिया। संचार तंत्र एवं लेह से कारगिल को जोड़ने वाला निमू पुल भी इस बाढ़ में बह गए।
भारत में गुज़रात सहित कई अन्य राज्य बाढ़ कि लपेट में हैं। उसके लिए केंद्र सरकार औए राज्य सरकारें राहत के काम शुरू कर चुकी हैं।
दूसरी प्राकृतिक आपदा पाकिस्तान में आई हुई है। आतंकवाद से पहले से ही ग्रस्त पाकिस्तान में बाढ़ का पानी मध्य व पश्चिमोत्तर क्षेत्र को घेरे में ले कर करीब दो हज़ार लोगों की जान ले चुका है। भारी तादाद में जान माल की हानि हुई। पाकिस्तान में आई इस प्राकृतिक आपदा से वहां के निवासी और पाक सरकार फिलहाल जूझ रहे हैं।
उधर रूस की राजधानी मास्को के जंगलो में लगी आग ने भयंकर तबाही बरपाई है। आग से उत्पन्न प्रचंड गर्मी से लोग जहां बेहाल हैं, वहीँ उससे उठता धुआं प्रकृति को प्रदूषित कर वातावरण में जहर घोल रहा है। यहाँ पर भी बचाव कार्य जारी है। उम्मीद है हालात ज़ल्दी ही नियंत्रण में आ जाएँगे।
इस बीच पश्चिमोत्तर चीन के गांसू प्रांत में भारी बारिश से हुए भूस्खलन ने प्रकृति का रौद्र रूप सबके सामने ला दिया है। भूस्खलन से बायालांग नदी का पानी भी रिहायशी इलाकों में घुस आया है। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार लगभग २० लोग मरे, कम से कम २ हज़ार लापता हैं। खराब मौसम के कारण बचाव अभियान में दिक्कतें आ रही हैं।
उपर्युक्त प्राकृतिक आपदाएं तो सिर्फ एक नजीर भर हैं। दुनिया में और भी कई देश हैं जो अलग अलग तरह के प्राकृतिक संकटों से जूझ रहे हैं। अंततोगत्वा यदि इनके कारणों पर नज़र डाली जाय तो बस यही नज़र आता हैं कि ये सब मानवों द्वारा किये जा रहे प्राकृतिक शोषण का नातीज़ा हैं।
भूमि से जल का दोहन, पर्यावरण में बेतहाशा प्रदूषण घोलने वाले वाहन, कारखाने कि चिमनी से निकलने वाला धुआं इनके मूल कारण हैं। कई बार असावधानीपूर्वक पानी के जहाज़ से लाए जा रहे कई गैलन तेल एक साथ समुद्र में जो पलट जाने से जो तेल बहा, आखिर नुकसान तो प्रकृति का ही हुआ ना। अंधाधुंध कटते पेड़ और पर्यावरण में बेतहाशा घुलती प्रदूषित हवा क्या इन आपदाओं की वजह नहीं हैं। इन पर किसी सरकार या शासन प्रशासन को ही नहीं सोचना। ज़रुरत हैं तो बस इस तरफ प्रत्येक व्यक्ति की तरफ से एक सकारात्मक पहल की।
भारत के प्राचीन इतिहास में वन पूजा, वृक्ष पूजा, नदी पूजा, गौ पूजा सहित पवन देव की आराधना आदि कोई ढकोसले नहीं थे, ये प्रकृति संरक्षण के तरीके थे। इस गौरवमयी प्रथा को हम आज नज़रंदाज़ करते हैं जबकि आज इसी की तो ज़रूरत हैं। कहने का आशय हैं कि प्रकृति को दोहन करना बंद किया जाय.

टिप्पणियाँ

  1. बीनाजी, आप बिल्कुल ठीक फरमा रही हैं । ये प्राकृतिक आपदाएं वस्तुतः मानव द्वारा किये जा रहे प्रकृति के विवेकहीन अनवरत शोषण का ही परिणाम हैं । यदि हम प्रकृति से सिर्फ़ लेते ही रहेंगे, कभी उसका संरक्षण नहीं करेंगे तो उसका कोप भी हमें ही झेलना होगा । आपका ये कहना भी बिल्कुल सही है कि प्राचीन भारत में वन पूजा, वृक्ष पूजा, नदी पूजा, गौ पूजा, पवन देव की आराधना आदि कोई ढकोसले नहीं थे वरन प्रकृति संरक्षण के तरीके थे । आज उन्हीं की फिर से ज़रूरत आ पड़ी है । आपको इस सामयिक एवं तथ्यपरक आलेख के लिये साधुवाद ।

    जितेन्द्र माथुर

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