वही ढाक के तीन पात

एक वक्त से भारत में समान लैंगिक अधिकार दिया जाने कि कवायद चल रही है। समान जीवनयापन का अधिकार , समान शिक्षा का अधिकार , समान अवसरों का अधिकार , समांन उत्तराधिकार का अधिकार सहित न जाने कितने ऐसे समान अधिकार हैं जिन्हें लिपिबद्ध किया जाना आसान नहीं हैं।
महिलाओं को पुरुषों के समान हक दिलाने की जो गतिविधियाँ चलाई जा रही है , उनमें एक और कवायद जुड़ गयी है "समान अभिभावकत्व के अधिकार की "। इस कानून के तहत जहाँ पहले गोद लिए गए बच्चे पर पहला हक सिर्फ पिता का होता था , वहीँ अब ये अधिकार समान रूप से माँ को भी प्राप्त होगा । ये ईसाईयों , यहूदियों , पारसियों , और मुसलमानों पर लागू होने वाले गार्जियंस एंड वार्ड एक्ट १८९० का संशोधित रूप होगा । संसदीय समिति ( विधि और न्याय ) इस कानून से सम्बंधित सुधार विधेयक का अध्ययन कर रही है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में बेटी को अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हक प्राप्त है। फिर भी आश्चर्य है की कानूनन अधिकार होने के बावजूद aaj भी उसे पराया धन कहा जाता है। जीवन भर पिता के घर से भेंट लेते रहने के बदले में उसे पैतृक संपत्ति में बराबर का हक नहीं दिया जाता ।
घरेलु हिंसा अधिनियम , २००८ कितना सफल है , ये उन महिलाओं की दीं दशा को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ,जो घरेलु हिंसा का शिकार रात - दिन होती रहती हैं।समान सिक्षा का मौलिक अधिकार लैंगिक रूप से समान है । किन्तु आज भी स्त्री शिक्षा का औसत काफी कम है।
जीवनयापन एवं अवसर की समानता ने निश्चित रूप से स्त्री - पुरुष के नज़रिए में सकारात्मक बूम ला दिया है । लेकिन आज भी औरत अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए पुरुष पर ही निर्भर है ।
मान - सम्मान में समान नजरिया हो यह एक सुखद अनुभूति देता है । किन्तु औरत तो फिर भी अपने पिता ,भाई,
पति और बेटों की दुत्कार का संबोधन सुनने को विवश है ।
यहाँ ये सब किन्तु - परन्तु कहने का आशय ये बिलकुल भी नहीं है कि २१ वीं सदी में भी औरत दीन हीन दशा में है । यहाँ आशय ये है कि जितने भी कानून भारत कि आधी आबादी के लिए बनाये जाते हैं , वो अपने कम प्रचार प्रसार और ढीले रवैये कि वजह से सफल नहीं हो पाते । यानी ढाक के वही तीन पात ..............

टिप्पणियाँ

  1. बीनाजी,

    आपके विचार अच्छे और पूर्णरूपेण सही हैं । आपने ठीक कहा है कि जितने भी कानून भारत की आधी आबादी के लिए बनाये जाते हैं, वो अपने कम प्रचार प्रसार और ढीले रवैये की वजह से सफल नहीं हो पाते । लेकिन बीनाजी, इससे भी बड़ी बात यह है कि पुरूष समाज अपनी सदियों पुरानी मानसिकता बदलने को तैयार ही नहीं है । वही बीमार सोच जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती जाए तो महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक और स्थायी सुधार कैसे हो ?

    जितेन्द्र माथुर

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  2. महिलाओं को अपनी समझ विकसित करनी होगी ..

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