क्या चुना जाय, सम्मान या संस्कार?

कभी-कभी जिंदगी में ऐसी जटिल परिस्थिति सामने आ जाती है कि उससे निपटने का रास्ता तो होता है लेकिन पैदाइशी संस्कार ऐसा करने से रोकने लगते हैं. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही घटा है जिसे इस सोशल मीडिया पर साझा करना चाहती हूँ. इसलिए नहीं कि मेरा विक्टिम कार्ड खेलने जैसा कोई इरादा है बल्कि इसलिए क्योंकि ऐसा करना मुझे जरुरी लगा. जहाँ भी लोकतंत्र है वहां अपनी बात रखने, अपने विचार साझा करने का मौलिक  अधिकार होता है और जहाँ लोकतंत्र नहीं है वहां भी अभिव्यक्ति का अधिकार एक अहम् मानव अधिकार माना जाता है. जैसा कि वोल्टेयर ने कहा भी है कि 'We have a natural right to make use of our pens as of our tongue, at our peril, risk and hazard'. (हम सभी को अपने खतरे, अपने जोखिम और अपनी हिम्मत के बलबूते अपनी कलम और ज़ुबान का इस्तेमाल करने का प्राकृतिक अधिकार है.) 

कल मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर कभी मेरे गुरु रहे व्यक्ति को बहुत ऐतराज हुआ. वो उस पोस्ट पर आई एक अन्य मित्र की टिप्पणी में घुस आये और मोदी को मेंटर बताने लगे. चूँकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मेरे लिए बहुत मायने रखती है इसलिए उनके विचार पर मुझे कोई रोष नहीं आया. लेकिन उनकी भाषा शैली अब अपने घटियापन के निम्न स्तर को भी पार कर सांप्रदायिक होने लगी तो मैंने टोंकते हुए उनसे ऐसा न करने को कहा.

उसके बाद वह मेरे इनबॉक्स में पधारे और मोदी का विरोध न करने को कहा. हमारी बातचीत के स्क्रीन शॉट फ़िलहाल यहाँ देखे जा सकते हैं. बहरहाल मैं जो साझा करना चाहती हूँ वह यह कि जब व्यक्ति खुद अवसाद में हो तब वह कुछ भी कहने से पहले अपने दिमाग को थोड़ा भी तकलीफ नहीं दे पाता या यूँ कहूं कि सोचने-समझने की शक्ति खो देता है.  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था हैं जो भारत की राजव्यवस्था को किसी तरह अपनी समझानुसार चला रहे हैं. वह सही है या गलत फ़िलहाल उस पर नहीं जाती हूँ. मैं आती हूँ मुद्दे पर- मुद्दे की बात यह है कि कभी मेरी सिविल परीक्षाओं की तैयारियों के बीच उन्होंने यानी गुरु पदवी धारक इस व्यक्ति ने मुझे इतिहास पढ़ाया था. इसी का लिहाज करते हुए उनकी मोदी भक्ति को लगातार नज़रअंदाज करती रही. लेकिन उनकी मानसिकता का यह स्तर कभी मेरी समझ नहीं आया. इनबॉक्स में उनका कहना था कि मैं मोदी विरोध इसलिए करती हूँ क्योंकि मैं सेक्सुअली परेशान हूँ, मेरी इस परेशानी का तोड़ उन्होंने बताया कि मैं शादी कर लूँ और लाइफ के मजे लूँ. अब उनके इस मशविरे को उनका अवसाद न कहूं तो और क्या कहूं ! अगर एक बार को उनके द्वारा बताये गए मेरी परेशानी के सबब को सही मान भी लूँ तो क्या वे 69 प्रतिशत लोग सभी सेक्सुअली रूप से बीमार हैं जिन्होंने 2014 में मोदी को वोट नहीं दिया था! 

उनकी घटियापन की हद यहीं नहीं रुकी. जब मैंने उनके गुरु होने के गरिमा को बनाये रखने के लिए कहा कि मैं उनसे कोई कुतर्क नहीं करना चाहती हूँ तो वह  फेसबुक पर मेरी तस्वीरों पर आने वाली टिप्पणियों को टारगेट करते हुए कहते हैं कि मैं 'मस्त' कहने वालों पर ध्यान दूँ! कमाल है न! वह जिनसे पढ़कर सैंकड़ों लोग अच्छे खासे सरकारी पदों पर बैठे हैं, उनकी मानसिकता यह है एक लड़की/महिला के प्रति! 

डिस्क्लेमर : मुझे हर किसी का सम्मान करना सिखाया गया है इसलिए सभी का सम्मान करती हूँ भले ही वह मुझसे उम्र में छोटे ही क्यों न हों. लेकिन मुझे किसी भी गलत बात पर चुप न रहने का संस्कार भी दिया गया है. इसलिए बात जब गरिमा हनन की हो तो मुझसे चुप नहीं रहा जाता है. एक गुरु की मानसिकता को उजागर करने के पीछे मेरा एकमात्र उद्देश्य बस इतना है कि कैसे एक व्यक्ति वैचारिक मतभेद में यह भूल जाता है कि वह अपनी वैचारिक बीमारी को ही उजागर कर रहा है.)







टिप्पणियाँ

  1. आपने वोल्तेयर का उल्लेख किया है बीना जी । वोल्तेयर का ही कालजयी कथन है : 'हो सकता है, मैं आपके विचारों से सहमत ना हो पाऊं, फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा ।' एक स्वस्थ मानसिकता वाले विचारशील तथा विवेकशील व्यक्ति का दृष्टिकोण तो यही होना चाहिए । किसी नारी को तर्कशक्ति से पराजित न कर पाने (अथवा उसके साथ हो रहे विमर्श को किसी संतोषजनक परिणाम तक न पहुँचा पाने) की कुण्ठा को उस पर लैंगिकता-आधारित प्रहार करके विरेचित करना सम्बन्धित व्यक्ति (पुरुष) की संस्कारहीनता ही नहीं, वरन उसकी मानसिक रुग्णता का भी परिचायक है । जहाँ तक आपके सम्मान एवम् गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रश्न है, इसके लिए कई मार्ग है । इन मार्गों में ऐसे व्यक्तियों की उपेक्षा करना भी एक व्यावहारिक दृष्टि से उचित विकल्प है । अंतिम निर्णय आपको करना है जो आपकी प्राथमिकता एवम् आपके अनुभव, दोनों पर ही आधारित होना चाहिए ।

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