नई-नई परिभाषाएँ गढ़ता धर्म और उसमे से निकलती बदबूदार गंध
न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में सबसे ज़्यादा विवादित शब्द है 'धर्म' . एक समय में कहा जाता था कि 'धर्म' हर तरह के तर्क से परे
है. यह भी माना जाता रहा कि 'इति धारयेति' माने जिसे स्वेच्छा से धारण किया जाए वही 'धर्म' है. अब जैसा कि होता रहा है 'जब किसी चीज या सोच में
समय के अनुसार बदलाव न किया जाए वह सड़ने लगती है', धर्म के साथ भी ऐसा हुआ. 'इति धारयेति' से एक कदम आगे बढ़कर धर्म 'इति निर्वहति' यानी जिसका निर्वहन किया जाए, हो गया. जिसे व्यक्ति स्वेच्छा से धारण करता था
वही उसे अब दबाव में आकर ढोने को विवश हो गया.
आज की भारतीय राजनीति में यही दबाव दिखने लगा है. धर्म जिसे कभी सभी तर्कों से परे माना जाता था, में तर्क घुलने लगा है. जैसे-जैसे तर्क घुले वैसे-वैसे इसमें छिपी बदबूदार गंध बाहर आने लगी. सदियों पुरानी इस बनावट में हाशिये पर जीवन जी रहे समूह के लिए 'ठेंगा' उघड़ कर साफ़ दिखने लगा है. दलित, अल्पसंख्यक, महिला, कथित अछूत और पिछड़ा वर्ग सभी को धर्म में अपनी जगह शून्य नज़र आने लगी है.
तर्क ने कथित धर्मगुरुओं, पादरी और मौलवियों से सवाल
करने शुरू कर दिए हैं कि कोई पुराने समय से चली आ रही धार्मिक परिपाटी को आखिर
क्यों मानें? जब तक ऐसे तर्क करने
वालों की संख्या मुट्ठी भर रही, धर्म के ये ठेकेदार फतवा
जारी करते रहे. लेकिन जब संख्या बढ़ने लगी तो इसका जिम्मा सरकार ने अपने कन्धों पर
ले लिया. अब धर्म राजनीति का अभिन्न अंग बन गया. यही कारण है कि शाहबानो मामले के
बाद से शुरू हुआ तुष्टिकरण का सफर आज भी जारी है. राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद आज
जबकि कानूनी पेचीदगियों में फंसा है, बीजेपी के लिए हिंदू तुष्टिकरण का अमोघ अस्त्र बना हुआ है. वहीं ट्रिपल तलाक़
महिला शोषण से ज़्यादा धर्म की नुमाइंदगी कर रहा है. शनि शिंगणापुर से शुरू हुआ
महिलाओं के धार्मिक स्थलों में बेरोक-टोक प्रवेश करने सम्बन्धी विवाद हाजी अली से होते हुए
सबरीमाला तक जा पहुंचा है. प्रतिक्रिया में जो होना
चाहिए था, उसे छोड़कर सब हो रहा है.
ट्रिपल तलाक पर लोकसभा में बिल पारित करने वाली केंद्र की बीजेपी सरकार जहाँ
महिलाओं के प्रति अपना समर्पण दिखाने से चूकती नज़र नहीं आ रही वहीं केरल में
सबरीमाला पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़
रही है. 1-2 जनवरी की मध्य रात्रि
में अयप्पा के गर्भगृह तक पहुँचने वाली दोनों महिलाओं व उनके परिवार पर आज भी
कट्टर दक्षिणपंथियों की तलवारें लटक रही हैं.
दूसरी तरफ धर्म की आड़ लेकर हमेशा से दलितों का शोषण करते रहने वाले भारतीय
समाज में आये दिन धर्म के नाम पर उनके साथ जातिगत बर्बरता की खबरें सुनने में आती
रहती हैं. असल में धर्म और जाति में कोई अंतर नज़र नहीं आ रहा है. ऐसे में जब तर्क की छुरियों से 'धर्म' की शल्य चिकित्सा होने
लगी तो इसमें समाई पुरानी बीमारियां अपनी बदबूदार गंध के साथ बाहर आने लगीं.
हालाँकि यह भी एक सकारात्मक संकेत है. क्योंकि जहाँ अब तक धर्म को अतार्किक बताते
हुए इसे हाशिये के समूह पर मनमानी से थोपा जाता रहा है अब वही समूह अपने पूरे
संवैधानिक अधिकार से इसे काट रहा है. मुमकिन है कि इस बदबूदार गंध के साफ़ हो जाने
के बाद एक साफ-सुथरी मानसिकता वाले समाज का निर्माण हो जाए.
बहुत अच्छे विचार हैं बीना जी आपके । मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ आपसे ।जो कुछ भी हो रहा है, वह मेरे और आपके जैसे नागरिकों के लिए बहुत पीड़ादायक है । काश धर्म और जाति की दुर्गंध हट जाए और आने वाली पीढ़ियां मानवता, संवेदनशीलता और विवेक पर आधारित एक स्वच्छ मानसिकता वाले सुगंधित समाज का निर्माण करें ! आमीन !
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