सरकार और सार्वजनिक हितों पर स्वाहा होते 'लावारिस' जंगल

मुंबई के समीप गोरेगांव स्थित आरे कॉलोनी से जुड़ा 3166 एकड़ में फैला जंगल और उसके लगभग 2,000 से अधिक वृक्ष शुक्रवार रात्रि और शनिवार दिनभर में सरकार व सार्वजनिक हितों पर स्वाहा हो गए। पिछले वर्ष ग्लोबल अर्थ चैंपियन के ख़िताब से सम्मानित होने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक पार्टी बीजेपी के तीनों स्तर की सरकारों के सरमाये में  2,646 वृक्ष काटने के लिए जारी सरकारी आदेश की आड़ में 2,000 से अधिक वृक्ष जमींदोज़ कर दिए गए। पर्यावरण सुरक्षा के लिए सिंगल यूज़्ड प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाने व लाखों शौचालयों का निर्माण करने का दावा कर रही केंद्र व राज्य सरकार ने मुंबई को मेट्रो शहर बनाने की धुन में वृक्षों के के 86 प्रजातियुक्त आरे जंगल के 2,646 वृक्षों को लावारिस कटने के लिए छोड़ दिया। 

छोटा कश्मीर और नैनीताल कहे जाने वाले आरे के जंगलों की सुरक्षा के लिए जून 2015 में, वनशक्ति और आरे कंजर्वेशन ग्रुप आगे आये थे। दोनों ने मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (MMRC) के खिलाफ पुणे में NGT की वेस्टर्न पीठ में एक याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि आरे दुग्ध कॉलोनी के आस पास फैले वन क्षेत्र को जंगल के रूप में नामित किया जाए व 33 हेक्टेयर में फैले मेट्रो कार शेड को कहीं और ले जाया जाए।

मामले को एनजीओ वनशक्ति राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी लेकर गई जहाँ उसे निराशा हाथ लगी। पिछले साल 21 सितम्बर में आये एनजीटी में असल में याचिकाकर्ताओं की प्राथमिक दलील थी कि आरे को जंगल घोषित किया जाए और संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान (SGNP) के आसपास के क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) माना जाए। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2016 में ईएसजेड घोषित किया था जिसमे आरे में मेट्रो कार पार्किंग की भूमि को ईएसजेड से बाहर कर दिया गया था। कार डिपो के लिए चिह्नित भूमि को छोड़ दिया गया था। मुंबई मेट्रो रेल कारपोरेशन के वकील किरण बगलिये की दलील के चलते मामले को 10 मिनट के अंदर ही निपटा दिया गया।

एनजीटी ने मामलो को सुलझाने में अपनी असमर्थता जाहिर की और कहा कि एनजीटी अधिनियम के तहत उनके पास शक्ति नहीं है। 14 मई को एनजीटी ने आरे के जंगलों के 2,646 वृक्षों को काटने और भूमि के पुनर्ग्रहण पर लगी रोक हटा दी जिससे निर्माण की सभी गतिविधियों को संचालित करने की अनुमति मिल गई।

29 अगस्त को वृहन्मुम्बई नगर निगम (बीएमसी) की वृक्ष अधिकरण ने आरे कॉलोनी में मेट्रो प्रोजेक्ट के लिए कार शेड बनाने की मंजूरी दे दी।4 अक्टूबर को बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप ननदराजोग और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की खंडपीठ ने पर्यावरणविद् ज़ोरू भाठेना और शिवसेना के नगरसेवक और बृहन्मुंबई रेलवे कॉर्पोरेशन की स्थायी समिति के अध्यक्ष यशवंत जाधव द्वारा दायर 2 जनहित याचिकाओं को खारिज कर दिया। यशवंत जाधव ने वृक्ष अधिकरण के 29 अगस्त के वृक्ष काटने के आदेश को चुनौती दी थी। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि निर्णय बिना किसी प्रक्रिया के जल्दबाजी में लिया गया है। हाई कोर्ट ने याचिका को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि यह जंगल नहीं है। जिसके बाद बीएमसी ने शुक्रवार रात से ही पेड़ काटना शुरू कर दिया। 40 से अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया और क्षेत्र में धारा 144 लगा दी गई।  

एक तरफ जहाँ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस बचाव में कह चुके हैं कि जहाँ 2,185 पेड़ काटे जा रहे हैं वहीं राज्य सरकार 2300 पौधे लगाने की तैयारी कर रही है। वैसे देवेंद्र फड़नवीस का बचाव में दिया गया यह तर्क कमाल है जो यह समझ नहीं रखते हैं कि जिन पेड़ों को काटने का आदेश हुआ है उनमे से तमाम वृक्ष 100 साल पुराने हैं और जो पेड़ वह लगाने वाले हैं, वह इन 100 साल पुराने पेड़ों का मुकाबला किस आधार पर कर सकेंगे? 

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि "जब दिल्ली में पहले मेट्रो स्टेशन बना तो 20-25 पेड़ काटे जाने की ज़रूरत थी। तब भी लोगों ने विरोध किया था, लेकिन काटे गए प्रत्येक पेड़ के बदले पांच पेड़ लगाए गए। दिल्ली में कुल 271 मेट्रो स्टेशन बने, साथ ही जंगल भी बढ़ा और 30 लाख लोगों की पर्यावरण पूरक सार्वजनिक यातायात की व्यवस्था हुई। यही मंत्र है, विकास भी और पर्यावरण की रक्षा भी, दोनों साथ-साथ।"

रविवार को 9 विधि छात्रों के एक समूह ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को पत्र लिखकर मामले में तुरंत हस्तक्षेप करने की मांग की। जिसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने जस्टिस अरुण मिश्रा और अशोक भूषण की द्वि न्यायाधीश की एक विशेष पीठ का गठन किया गया। सोमवार को हुई सुनवाई में विशेष बेंच ने वृक्षों के काटने के सरकारी आदेश पर रोक लगा दी और अदालत ने मामले की अगली सुनवाई 21 अक्टूबर तय की।  महाराष्ट्र सरकार ने कोर्ट में कहा कि अब मेट्रो कार शेड के लिए रास्ता बनाने के और पेड़ों को काटने कि जरुरत नहीं है। बात दिलचस्प यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट की विशेष पीठ ने एनजीटी की तरह ही सरकार से जवाब माँगा है कि वह यह स्पष्ट करे कि विवादित भूमि क्षेत्र इको सेंसिटिव जोन था या नहीं? पीठ ने कहा कि प्रस्तुत दस्तावेज के अनुसार न तो यह इको सेंसिटिव जोन यह और न ही विकास क्षेत्र था। और अगर था या है तो सरकार हमें इसका दस्तावेज दिखाया जाए'। 

वहीं कुछ का तर्क यह भी है कि आरे के जंगल में लगभग 60,000 से अधिक पेड़-पौधे हैं ऐसे में अगर 2,000 पेड़ काट भी दिए जाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे में आरे का जंगल वृहन्मुम्बई नगर निगम, राज्य व केंद्र सरकार सहित एनजीटी व बॉम्बे हाई कोर्ट सहित एक बड़े धड़े की तरफ से लावारिस होने का दंश झेल रहा है। 

इसी तरह अदालत, सरकार और एनजीटी में सुरक्षा की गुहार लगाने और सुरक्षा हासिल करने के बीच के दरमियान में काटे जा चुके 2,000  से अधिक वृक्षों का जिम्मेदार कौन होगा, यह अभी किसी को नहीं पता। यहाँ और बात जो साफ़ हुई है, वह यह कि ऊंची अदालतों ने सार्वजनिक हितों से जुड़े मामलों की स्वतः संज्ञान की परम्परा को एक कोने में रख छोड़ा है।

अंत में आरे वन संकट से इतर जो बात जानने योग्य है उस पर एक नज़र:

वनीकरण योजना के तहत हर वर्ष पहली जुलाई से 7 जुलाई के बीच वन महोत्सव मनाया जाता है। इस दौरान देश में लाखों पेड़ लगाए जाते हैं। लेकिन विकास के लिए काटे जा रहे पेड़ों की तुलना में ये प्रयास कितने पीछे रह गए हैं इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद से भारत का वन क्षेत्र 20 प्रतिशत रहा है जो 2017 में बढ़ कर महज 21.54 प्रतिशत तक पहुंच पाया है। यह आंकड़ा भारत की स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 के अनुसार है।

इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज़ादी के बाद से भारत की कुल जनसँख्या में चार गुना (330 मिलियन से 1.3 बिलियन) वृद्धि हुई है। यह जनसँख्या कृषि, आवास और औद्योगिक उद्देश्य के लिए बड़े पैमाने पर वन क्षेत्र में घुसपैठ कर उन्हें ख़त्म कर रही है, जबकि वन कवर के अतिरिक्त भूमि मौजूद है और अगर दृढ़ संकल्प हो तो वन क्षेत्रों को बढ़ाया जा सकता है।

भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 328 लाख हेक्टेयर है। जिसमे लक्षित वन कवर (33%) के लिए 108 लाख हेक्टेयर भूमि का वनीकरण करने का लक्ष्य रखा गया है। अब तक भारत के मौजूदा वन और वृक्ष आच्छादन 78.2 लाख हेक्टेयर भूमि पर फैला हुआ है। लक्ष्य पूरा होने में वन और वृक्ष आवरण में अभी 30 लाख हेक्टेयर का फासला है। 11 वीं योजना के दौरान देश में अनुमानित वनीकरण 4.2 लाख हेक्टेयर भूमि पर किया गया जिसमे 8300 करोड़ रुपये का निवेश हुआ। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट में प्रस्तुत दस्तावेज के अनुसार 33 प्रतिशत वन कवर प्राप्त करने के लिए अनुमानित अवधि 35 वर्ष रखी गई है जबकि इसमें 60,000 करोड़ रुपयों के निवेश की आवश्यकता होगी।

मंत्रालय के अनुसार वन और वृक्ष आच्छादन बढ़ाने में सामाजिक-आर्थिक, औद्योगिक, अवसंरचनात्मक माँग के कारण वन के बाहर भूमि की अनुपलब्धता मुख्य अड़चनें हैं। पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार भारत में उत्पादक कृषि के अंतर्गत उपलब्ध भूमि 158 लाख हेक्टेयर है जबकि 64 लाख हेक्टेयर भूमि पर आधारिक संरचना और बस्तियां काबिज हैं। राज्यों द्वारा राज्यों द्वारा ऐसी गैर वन भूमि की पहचान करने के लिए  सर्वेक्षण प्रस्तावित है।

लक्षित वन और वन आच्छादन प्राप्त करने की दिशा में हो रहे प्रयास-

  • घटिया किस्म के वन भूमि का उद्धार / गुणवत्ता में सुधार (मध्यम घने वन और खुले वन)।
  • गैर वन क्षेत्रों में पेड़ लगाने के लिए जन चेतना का विकास करना।
  • राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (एनएपी) देश में वनीकरण के प्रयासों में लगभग 15 से 20% योगदान देता है साथ ही इस कार्यक्रम के तहत मौजूदा वन आवरण की गुणवत्ता और उत्पादकता में सुधार पर जोर दिया जाता है। 
  • 33 फीसदी वन एवं वन आच्छादन का लक्ष्य केवल व्यापक प्रतिनिधित्व के दृष्टिकोण, तमाम हितधारकों की भागीदारी और बहु एजेंसियों के माध्यम से अधिसूचित वनभूमि के बाहर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित कर के ही हासिल किया जा सकता है।
वहीं वर्ष 2017 में भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु के एक अध्ययन में पाया गया कि मुंबई शहर का विकास पर्यावरण की कीमत पर हुआ है। अध्ययन में कहा गया था कि शहर का 94% हिस्सा पिछले चार दशकों में कंक्रीटयुक्त हुआ है और इस प्रक्रिया में 60 फ़ीसदी वनस्पति और 65 फ़ीसदी जल निकाय नष्ट हो गए। अध्ययन के अनुसार मुंबई पूरी तरह से शहरी आपदा के संकट की तरफ बढ़ रही है जहाँ वनस्पति के अभाव में शुद्ध पानी और हवा जैसी बुनियादी सुविधाएँ लगभग न के बराबर होंगी। अध्ययन में यह भी बताया गया कि अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया और शहर की परिधि में अनियोजित शहरीकरण को नहीं रोका गया तो स्थिति बेहद भयावह होगी। अध्ययन में पाया गया था कि, "मुंबई कई पर्यावरणीय समस्याओं का सामना कर रहा है, जो दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है।"

वर्ष 2015 में विश्व बैंक के अनुसार विश्व स्तर पर वन क्षेत्र 25 साल में घटकर 30.8 प्रतिशत हो गया था। स्पष्ट है कि तमाम योजनाओं और पहलों के बावजूद वन क्षेत्र बढ़ती जनसँख्या, कृषि भूमि व औद्योगिक हितों पर स्वाहा हो रहे हैं। वनों की महत्ता को अभी न समझा गया तो वह दिन दूर नहीं कि मिनरल वॉटर की तरह ऑक्सीजन खरीदना पड़ेगा या फिर सरकार को वितरण प्रणाली में राशन की तरह स्वच्छ वायु के पैकेट वितरित करना पड़ेगा 


https://www.satyahindi.com/maharashtra/aarey-colony-forest-trees-cut-down-supreme-court-on-environment-104986.html

टिप्पणियाँ

  1. आपके विचार एवं लेख में उद्धृत तथ्य बिल्कुल सही हैं बीना जी । सच तो यही है कि निहित स्वार्थों के आगे वन-संपदा की महत्ता को समझने के लिए कोई (आत्ममुग्ध न्यायपालिका सहित) तैयार ही नहीं है । सब बैठे-बैठे गाल बजा रहे हैं और प्रकृति को निरंतर पहुँचाए जा रहे नुकसान पर केवल थोथी बातें करके ही मानो फ़र्ज़ अदा किया जा रहा है । मुंबई में नियमित अंतराल पर आने वाली बाढ़ें प्रकृति की वह चेतावनी है जिसे अनदेखा करके सर्वनाश को आमंत्रण दिया जा रहा है । वन-संपदा ही वर्षा करवाती है और वन संपदा ही जलप्लावन को रोकती है । इन बातों को न समझने वाले (या समझकर भी कुछ न करने वाले) अनाड़ी नहीं अंधे हैं अक़्ल के जिनकी स्वार्थजनित विवेकहीनता तथा कुकर्मों का दुष्फल आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा । हिंदू संस्कृति की रक्षा की ठेकेदार बनी बैठी सरकार को स्मरण ही नहीं है कि कृष्ण द्वारा बसाई गई द्वारका नगरी सागर तल में जा समाई थी और यादव कुल सहित सब कुछ नष्ट हो गया था । क्यों ? क्योंकि उसके निवासियों के पाप सभी सीमाओं को पार कर गए थे ।

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    1. सही कहा माथुर जी, प्रकृति की अनमोल देन का इस तरह दोहन असल में मनुष्य का दुर्भाग्य है। ये इसके नतीजे से वाकिफ भी हैं फिर भी दोहन किये जा रहे हैं।

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