आईसीजे की म्यांमार को दो टूक 'रोके रोहिंग्या नरसंहार', जानें पूरा मामला..

नीदरलैंड स्थित संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने 23 दिसंबर को बौद्ध राष्ट्र म्यांमार से अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के कथित नरसंहार को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए कहा। अंतर्राष्ट्रीय अदालत का यह आदेश वर्ष 2017 में रोहिंग्या मुसलमानों पर म्यांमार के सैन्य हमले पर न्याय के रूप में आया है जिस सैन्य कार्रवाई में 740,000 रोहिंग्या पड़ोसी बांग्लादेश भाग गए।
अफ़्रीकी राज्य जाम्बिया ने 1948 के जेनोसाइड कन्वेंशन के तहत हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से आपातकालीन कदम उठाने की याचिका की थी जिसके बाद न्यायालय ने सुनवाई की। पीठासीन न्यायाधीश अब्दुलकवी अहमद यूसुफ ने कहा कि म्यांमार को कन्वेंशन के अनुसार "यथाशक्ति रोहिंग्या नरसंहार को तत्काल  रोकने व सभी उपाय करने होंगे"।
सुनवाई के दौरान कहा गया कि नरसंहार में ''समूह के सदस्यों की हत्या'' और 'जानबूझकर आंशिक या सम्पूर्ण हिस्सों में जिंदगियों को प्रभावित करने का प्रयास किया गया।" उन्होंने कहा कि "अदालत की राय है कि म्यांमार में रोहिंग्या अत्यंत असुरक्षित हैं।" अदालत ने म्यांमार को चार महीने के भीतर और उसके बाद हर छह महीने में रिपोर्ट करने का आदेश दिया। जाम्बिया वर्षों से लंबित मामलों को निपटाने की दरख्वास्त की है।
म्यांमार नेता आंग सान सू की ने व्यापक रूप से बलात्कार, आगजनी और सामूहिक हत्याओं पर अपना पक्ष रखने के लिए दिसंबर में हेग पहुंची थी। बता दें आईसीजे के आदेश बाध्यकारी हैं लेकिन उसके पास अपने फैसलों को लागू करने की शक्ति नहीं है। हालांकि उसके फैसला महत्वपूर्ण होता है।

कौन हैं रोहिंग्या?
रोहिंग्या म्यांमार में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं जिनकी अपनी भाषा और संस्कृति है। वे बांग्लादेश की सीमा से लगे राखिने राज्य में रहते हैं। पीढ़ियों से म्यांमार में रहने के बावजूद, न तो उन्हें नागरिक के रूप में मान्यता प्राप्त है न ही राज्य की जनगणना में उन्हें गिना जाता है। सरकारी रिपोर्ट में उन्हें अवैध अप्रवासी कहा जाता है ।

क्या है रोहिंग्याओं का इतिहास?
रोहिंग्या एक मुस्लिम आदिवासी समूह हैं जो सदियों से बौद्ध देश म्यांमार (पहले बर्मा) के राखिने राज्य में रहते आए हैं। प्राचीन अरब के अरकान से बंगाल आये और आठवीं शताब्दी में मुसलमान बन गए।
इस मुस्लिम अल्पसंख्यक के खिलाफ भेदभाव पीढ़ियों पहले शुरू हुआ था, लेकिन 1962 में रोहिंग्या से राजनीतिक प्रतिनिधित्व और अधिकार छीन लिए गए। म्यांमार सरकार का मानना ​​था कि रोहिंग्या बर्मा में अवैध रूप से रहते हैं, इसलिए अधिकारियों ने 1978 में बर्मा में अवैध रूप से रह रहे लोगों को खत्म करने के लिए हिंसक कार्रवाई शुरू की। 250,000 से अधिक रोहिंग्या देश छोड़कर चले गए, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव ने म्यांमार को उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर किया। तीन साल से भी कम समय के बाद सरकार ने 1982 का नागरिक अधिनियम पारित किया, जिसने रोहिंग्या को नागरिकता से वंचित कर दिया। 1824 से पहले बर्मा में बसे समूहों (अंग्रेजों द्वारा कब्जे के पहले की तारीख) को राज्य द्वारा परिभाषित "राष्ट्रीय नस्ल" पर आधारित नया नागरिकता कानून पारित किया जिसमे रोहिंग्या सहित कुछ विशेष जातीय समूहों को बाहर कर दिया गया।

रोहिंग्या संकट में बौद्ध कट्टरपंथ और इस्लाम चरमपंथ की भूमिका
साधन व राज्य विहीन रोहिंग्या मुसलमानों की रक्षा आराकान रोहिंग्या रक्षा सेना कर रही है जो राज्य के राखिने में सक्रिय एक सशस्त्र संगठन है। आराकान रोहिंग्या रक्षा सेना रोहिंग्या मुस्लिम की रक्षा के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहा है और इसके ज़्यादातर सदस्य बांग्लादेश से आए अवैध शरणार्थी बताए जाते हैं। वहीं म्यांमार में कट्टरपंथी बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु के नेतृत्व में बौद्ध उग्रवाद पल रहा है। अशीन विराथु को उनके कट्टरपंथी भाषणों की वजह से जाना जाता है। विराथु अपने भाषणों के ज़रिए इस भावना को भड़काने का काम कर रहे हैं कि मुस्लिम अल्पसंख्यक एक दिन देश भर में फैल जाएंगे।
कथित रूप से विराथु को म्यांमार की सेना का समर्थन प्राप्त है वहीं आराकान रोहिंग्या रक्षा सेना को बांग्लादेश की जिहादी संघ जमात-उल-मुजाहिदीन (जेएमबी) और इंडियन मुजाहिदीन सहित तमाम जिहादी संगठनों का समर्थन मिलता है। इन अंतरराष्ट्रीय जिहादी संगठनों ने इस मामले में म्यांमार के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ने की धमकी देना शुरू कर दिया है। अलकायदा व इससे जुड़े सोमालिया के चरमपंथी समूह अल-शबाब, हयात तहरीर-अल-शाम जो सीरियाई चरमपंथी संगठन अल-नुसरा से जुड़ा है, जैसे चरमपंथी संगठन भी इसका हिस्सा हैं।

गल्फ देशों की भूमिका
संयुक्त अमीरात ने इस वर्ष जून में रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए अमीरात रेड क्रीसेंट अथॉरिटी (ईआरसी) की तरफ से दिरहम 65 मिलियन की घोषणा की। ईआरसी ने राष्ट्रपति महामहिम शेख खलीफा बिन जायद अल नाहयान के निर्देशों के तहत अभियान शुरू किया, जिसका उद्देश्य एक मिलियन से अधिक विस्थापित शरणार्थियों को खाद्य आपूर्ति, चिकित्सा सहायता, स्वच्छ जल, शिक्षा और आवास प्रदान करना है। ईआरसी के अनुसार, बांग्लादेश में शिफ्ट कैंप में रहने वाले 720,000 बच्चों, 240,000 महिलाओं और 48,000 बुजुर्गों सहित 1.2 मिलियन से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए खाद्य आपूर्ति, चिकित्सा सहायता, पानी, शिक्षा और आवास की व्यवस्था की जाएगी।
27 सितम्बर 2019 सऊदी अरब के किंग सलमान मानवतावादी सहायता और राहत केंद्र (KSRelief) के महासचिव डॉ अब्दुल्ला अल-रबेह ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित सम्मलेन में रोहिंग्या शरणार्थियों के एक प्रति चिंता जाहिर करते हुए कहा कि म्यांमार में व्यवस्था द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। अल-रबेह ने कहा कि KSRelief पांच भागीदारों के साथ मिलकर विभिन्न क्षेत्रों में 20 परियोजनाओं को लागू कर और रोहिंग्या शरणार्थियों के बच्चों के लिए शैक्षिक सेवाएं प्रदान करने की व्यवस्था कर रहा है। एक अलग तथ्य यह भी कि खुद को इस्लाम का संरक्षक मानने वाले सऊदी अरब ने खुद जनवरी 2019 में अपने यहाँ रहने वाले एक हज़ार से अधिक अप्रवासी रोहिंग्याओं, जो बांग्लादेश या म्यांमार से भाग कर वहां पहुंचे थे, को वापस भेज दिया था, जिनमे से कइयों का कहना था कि अरब में उनकी हालात ऐसी हो गई थी कि वे खुद को ख़त्म कर देना चाहते थे।

अवसाद सहित तमाम मानसिक रोगों से जूझता रोहिंग्या समुदाय 
म्यांमार और बांग्लादेश से मलेशिया भागे कई रोहिंग्याओं ने महीनों में जेल में बिताये और संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्च आयोग (UNHCR) के अनुरोध पर रिहा कर दिए गए, और अब गैरकानूनी तरीके से काम करते हैं। UNHCR के अनुमान के मुताबिक मलेशिया में केवल एक तिहाई वयस्क रोहिंग्या कार्यरत हैं।
इनमें से कई पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) और अवसाद से पीड़ित हैं। UNHCR के सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2018 में मलेशिया के प्रत्येक 245 रोहिंग्या में से हर पांचवां में अवसाद और पीटीएसडी से जुड़े गंभीर मानसिक रोग का शिकार है।

क्या है म्यांमार सरकार का पक्ष?
म्यांमार सरकार के प्रवक्ता यू ज़ॉ हते रोहिंग्या शरणार्थियों की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया में विलम्ब के लिए बांग्लादेशी सरकार को दोषी ठहराते हैं। यू ज़ॉ हते का कहना है कि जब तक बांग्लादेश सहयोग नहीं करेगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। 1993 में जब यह समस्या बढ़ी तब बांग्लादेश के सहयोग से प्रत्यावर्तन सफल हुआ था। अब समस्या इसलिए होती है क्योंकि बांग्लादेश सहयोग नहीं करता है।
रोहिंग्या संकट का सामना न केवल म्यांमार बल्कि चीन और भारत भी कर रहे हैं। एशिया की दो बड़ी शक्तियां भारत और चीन म्यांमार के राखिने राज्य में बड़ा निवेश कर रही हैं। जबकि पश्चिमी और इस्लामिक देश म्यांमार की आंग सान सू ची से राखिने में रोहिंग्या समुदाय पर सरकारी बर्बरता की लिए जवाब मांग रहे हैं।
म्यांमार सेना टात्माडॉ की अगुवाई में राखिने में बसे रोहिंग्याओं में से लगभग 50 हज़ार से अधिक को बांग्लादेश रवाना करने की कवायद में सैन्य संघर्ष का खतरा बना रहता है।

क्या है भारत से रोहिंग्या का नाता?
लगभग 40,000 रोहिंग्या जम्मू, दिल्ली, और जयपुर जैसे शहरों के गन्दी बस्तियों में बने अवैध झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। अगस्त 2017 में, भारत के केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि केंद्र सरकार ने राज्यों सरकारों से कहा है कि वे अपने राज्यों में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्याओं की पहचान करें और एक टास्क फ़ोर्स गठित कर उन्हें देश से निर्वासित कर दें।
यूँ तो भारत में लगभग 16,500 रोहिंग्या शरणार्थियों के पास यूएनएचसीआर द्वारा शरणार्थियों के लिए जारी किए गए पहचान पत्र (UNHCR) हैं। लेकिन चूंकि भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए यूएनएचसीआर द्वारा दिया गया यह पहचान पत्र उसके किसी काम का नहीं है। यही वजह है कि भारत में रोहिंग्याओं को कोई कानूनी सुरक्षा या सुविधाओं नहीं मिलती है।
सुप्रीम कोर्ट बांग्लादेशी नागरिकों और रोहिंग्याओं सहित सभी अवैध अप्रवासियों और घुसपैठियों की पहचान और निर्वासन करने सम्बन्धी जनहित याचिका पर सुनवाई करने पर सहमत हुआ है। याचिका भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है जबकि याचिका की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली एक पीठ कर रही है।

क्या है असभ्य और खूनी रोहिंग्याओं का उपाय?
म्यांमार और बांग्लादेश में अवैध रूप से रह रहे सम्पूर्ण रोहिंग्या समुदाय पर असभ्य और खूंखार होने का आरोप लगता है इसीलिए वहां की सरकारें उन्हें भगाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करती हैं भले ही वह हिंसक तरीका ही क्यों न हो।
लेकिन वह बात जो मानवाधिकार और नैतिकता की कसौटी पर कसी जानी चाहिए वह ये कि एक तरफ रोहिंग्या समुदाय सभ्य बनाने जाने वाली सुविधाओं जिसमे शिक्षा, रोजगार, आवास व नागरिकता की पहचान सम्मिलित है, से वंचित है तो दूसरी तरफ उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि वे सभ्यता से पेश आएं! यह कैसे संभव है कि एक व्यक्ति मुख्य धारा में आए बिना ही संस्कारी और मानवता प्रेमी बन जाए?
राज्य विहीन समुदाय जिसके पास न तो अपनी जमीन है न ही आसमान, वो कैसे अपना भरण-पोषण करे? यह सवाल संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने सदस्यों देशों के साथ मिलकर सुलझाना होगा। कहीं ऐसा न हो कि बर्बरता और आसान शिकार के भागी रोहिंग्या किसी दिन पेट में बम बांध कर फटने लगें और आतंकवादियों का एक नया समूह दुनिया के पटल पर अपनी दस्तक दे दे।

टिप्पणियाँ

  1. अंतिम दो परिच्छेदों में आपने समस्या का मूल तथा उसकी संभावित विभीषिका, दोनों ही का तर्कपूर्ण विवरण दे दिया है। पक्षपातपूर्ण एवं उथली सोच से समस्या हल नहीं होगी। प्रत्येक समुदाय को अपना घर चाहिए, मन में सुरक्षा का भाव चाहिए; उस पर बुरे होने क बिल्ला लगा देने से समस्या बढ़ेगी ही, हल नहीं होगी।

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