आदतन हम ने ऐतबार किया

पहली घटी घटना अक्सर हैरतअंगेज होती हैं फिर वही जब दोबारा घटें तो हैरत को आवाज़ मिलती है. फिर एक जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने का दौर शुरू होता है और आवाज़ शोर में तब्दील हो जाती है. फिर वही घटनायें कभी इस तरफ घटती हैं तो कभी उस तरफ. चारों ओर उन्हीं का शोर होने लगता है. कोई ओर छोर नहीं..
नहीं समझ आया ना कि मैं क्या अनाप शनाप बोले जा रही हूँ. चलो, समझाने की कोशिश करती हूँ. दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के बाद देश भर में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की ख़बरों ने भयंकर शोर मचाया और फिर धीरे-धीरे ये खामोश हो गईं. ये खामोशी इसलिए नहीं क्योंकि फिर कोई गैंगरेप नहीं हुए बल्कि ये खामोशी इसलिए क्योंकि ये घटनायें सामान्य लगने लगीं. कड़वा है लेकिन सच है. एक और उदाहरण देती हूँ. 
हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक को जलाकर मार देने के बाद उसकी लपटों में उन्नाव से लेकर बिहार, दिल्ली सहित कई जगहों पर बेटियों को अपने लपेटे में लिया. शोर मचा और फिर वही ढाक के तीन पात! सब शांत, सब जगह मुर्दा शांति!
कोटा में मासूमों की मौतों ने देश की स्वास्थ व्यवस्था की पोल खोल दी तो विपक्षी दलों ने इसे भी अपना हथियार बना लिया. मुजफ्फरपुर, गोरखपुर के अस्पतालों मे मासूमों की मौतों को कभी ढाल बनाया गया तो कभी हथियार. अब राजकोट में लगभग 140 बच्चों की मौत की खबर आम हुई है. मुमकिन है कि ऐसी ही और ख़बरें आयें और फिर सब मुर्दा शांति से भर जाएं. 
असल में किन्हीं निर्मम घटनाओं के सामान्य होते ही वह आदत बन जाती है और खामोशी की वजह भी. यक़ीन न हो तो शाहीन बाग में CAA के विरोध में बैठे लोगों को देखिए और बाहर शहरों की सामान्य स्थिति देखिए, फर्क़ साफ दिखेगा.
सत्ता धारियों को ये फर्क़ दिखता है इसलिए वह प्रतिबिम्ब (reflection policy) नीति अपनाते हैं. इससे वे बोलने वालों को नया मुद्दा थमाते रहते हैं और पुराने मुद्दों को अपने हिसाब से मनमुताबिक दबाकर रखते रहते हैं. सवाल यह उठता है कि इनकी चालाकी और हमारी ख़ामोशी कब तक चलेगी? 
#लाज़िम_है_कि_हम_भी_देखेंगे
#अन_अल_ हक़ 

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