सोशल मीडिया पर 'सरकार का अंकुश' क्या रोक पाएगा अभिव्यक्ति की आज़ादी को?
आज कल सोशल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण के प्रस्ताव के बारे में पक्ष और विपक्ष में खूब चर्चा हो रही है। इस प्रस्ताव के पक्ष में बोलने वालों का तर्क है कि इससे सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले द्वेषपूर्ण भाषण (हेट स्पीच), फेक न्यूज़, गैर राष्ट्रवादी गतिविधियों, सार्वजनिक धमकियों व लोगों का ब्रेन वाश करने की गतिविधियों पर अंकुश लगेगा। वहीं इसका विरोध करने वालो का तर्क है कि सोशल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण से नागरिकों का मौलिक अधिकार 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन' होगा साथ ही सरकारी नियंत्रण से गोपनीयता सुरक्षित नहीं रहेगी।
तो सबसे पहली बात कि सोशल मीडिया पर 'सरकार नियंत्रण' नहीं लगा रही। बल्कि का इस पर 'विधि का नियंत्रण' रहेगा। इसलिए 'सरकारी नियंत्रण' टर्म का इस्तेमाल कर गुमराह करने का प्रयास बंद होना चाहिए। दूसरे पिछले काफी समय में हम सभी ने देखा है कि सोशल मीडिया पर बने तमाम फर्जी अकाउंट, पेज व समूहों के माध्यम से पोस्ट की जाने वाली ख़बरें इतनी अस्पष्ट होती हैं कि यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि कौन सही हैं और कौन फर्जी हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले त्वरित वीडियो, फोटो, फोटोशॉप्ड तस्वीरें व सम्पादित किये हुए वीडियो जैसी चीजों पर अंकुश लगना बेहद जरुरी है।
इसी साइबर आतंकवाद से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्र 'सोशल मीडिया को विनियमित करने संबंधी कानून बना रही है। जिसे अंतिम रूप देने के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट से जनवरी 2020 तक का समय माँगा है। उसे लागू करने के लिए और तीन महीने का समय माँगा है।
अब बात निजता और गोपनीयता की, तो आधार कार्ड पर अपनी उँगलियों की छाप देकर सभी ने अपनी निजता सरकार के हवाले पहले ही कर दिया है। जिसपर सरकार और सुप्रीम कोर्ट कई बार अलग-अलग पलटी मरते रहे हैं। फ़िलहाल सोशल मीडिया पर 'विधि का नियंत्रण' होने से इस नियंत्रण के घेरे में सभी होंगे चाहे वह सामान्य नागरिक हो या आला अफसर या नेता। जहाँ तक निजता का सवाल है तो हाँ, यहाँ यह भय जरूर है कि लोग अपने बेहद निजी क्षणों को अपने दोस्त,परिवार या साथी के साथ कैसे जी पाएंगे? तो जवाब यह कि जो बात पहले नकारी जाती रही है कि व्हाट्सऐप जैसे बातचीत के माध्यमों पर कोई 'सरकारी निगरानी' नहीं होती तो अब यह यह बात खुले आम स्वीकारी जाएगी कि सब पर सरकार की नजर है। कुछ भी छिपा नहीं है ।
दूसरी बात कि लोगों का कहना है कि इस तरह के क़ानून से 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' नहीं रहेगी, तो अगर बात तथ्यपरक होगी तो कोई कानून किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, और अगर सोशल मीडिया पर भ्रांतियां फ़ैलाने को 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' कहा जाता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि सोशल मीडिया पर तमाम राजनीतिक दलों के आईटी सेल यही काम कर रहे हैं, जिनपर आम व्यक्ति अंकुश नहीं लगा पाता, इस पर कानून बन जाने के बाद आम आदमी भी उनपर रोक टोक लगा सकेगा।
असल में सोशल मीडिया पर नियंत्रण का विरोध इस मायने में होना चाहिए कि 'क्या इसके जरिये सरकार उसकी नीतियों का विरोध करने वालों का मुंह बंद करने का प्रयास करने के बारे में सोच रही है? क्या सार्वजनिक मंच को कुछ हाथों में समेटने का प्रयास किया जा रहा है? क्या इस कानून के तहत निजता की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया जाएगा?
इन सभी का जवाब तभी मिल सकेगा जबकि सरकार सोशल मीडिया को विनियमित करने सम्बन्धी विधेयक को सार्वजनिक करेगी। फ़िलहाल अभी के लिए 'तथ्यपरक लेखन और मर्यादित भाषा' के इस्तेमाल के जरिये अपना काम जारी रखना है। और सरकार को ऐसा कोई मौका देने से बचना है जिससे अनुभव लेकर उसे विधेयक को विवादास्पद बनाने का बहाना मिल जाए।।
नोट: हालाँकि इस सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड देखते हुए उससे इस बारे में कुछ अच्छे की उम्मीद रखना बेमायने है, फिर भी मैं यह गुस्ताखी कर रही हूँ
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