तुम तब कहाँ थे?

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5 साल, 3 महीना और तकरीबन एक हफ्ते पुरानी सत्ताधारी पार्टी के सिपाही, मोहनदास करमचंद गाँधी की महिमा का खंडन करने के फेर में अपने कथित देशभक्त नाथूराम गोडसे व विनायक दामोदर सावरकर का महिमामंडन करते रहते हैं। दिलचस्प बात यह रहती है कि अपने कथित देशभक्तों के लिए इनके पास कोई कहानी नहीं है इसलिए जिसका अपना गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, उस पर ये कीचड़ उछालते रहते हैं। मसलन कभी महात्मा गाँधी को हिन्दू विरोधी बताते हैं तो कभी अय्याश कहने लगते हैं। कभी इनके पास यह भी कहने को होता है कि अगर महात्मा गाँधी चाहते तो वह भगत सिंह की फांसी रुकवा सकते थे। 

कट्टर हिंदुत्ववादी पार्टी जिसने हमेशा पूंजीपतियों की जेबें भरी हैं, इन्हें शहीद भगत सिंह की वामपंथी विचारधारा और उनपर मार्क्स-लेनिन का प्रभाव नहीं दिखता क्योंकि वह भगत सिंह को बन्दूक में देखते हैं। भगत सिंह का इस्तेमाल गाँधी की गरिमा को मटियामेट करने के लिए करते हैं। इस तरह बंदूकधारी भगत सिंह को हत्यारे गोडसे के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश करते हैं। लेकिन इतिहास बहुत कठोर होता है, वह किसी का पक्ष नहीं लेता इसलिए वह आरएसएस और विहिप जैसों की पोल खोल कर रख पाता है।

जैसा कि यह सभी जानते हैं कि आज़ादी के लिए महात्मा गाँधी पूरी तरह से अहिंसक आंदोलन का संचालन कर रहे थे, इसलिए पूर्व में असहयोग आंदोलन के चरम पर होने के बावजूद जब चौराचौरी कांड होता है तब वह आंदोलन वापस ले लेते हैं। जिसके बाद भगत सिंह की रूचि इंक़लाब यानी क्रांति की तरफ झुक जाती है। 

गाँधी के आलोचक यह समझने में असफल रहे हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों का जीवन बचाना गाँधी के लिए त्वरित लाभ जैसा होता और तमाम युवा जो सत्याग्रह से अपना मुंह मोड़कर हिंसा के रास्ते पर चल चुके थे, वह गाँधी के पाले में आसानी से आ जाते। लेकिन मामला वापस चौराचौरी जैसे कांड और मानसिकता पर 8 साल पीछे चला जाता। ऐसे में गाँधी के लिए ये सब आसान नहीं होना था। एक पहलू यह भी है कि यदि गांधी भगत सिंह, सुखदेव और राज गुरु का जीवन बचाने में सफल हो जाते, तो इसे हिंसा पर अहिंसा की जीत और क्रांतिकारियों पर गांधी की नैतिक जीत के रूप में देखा जाता। 

गाँधी यह देख रहे थे कि ब्रितानिया हुकूमत ने निहत्थों पर गोलियां भले ही चलाई हों लेकिन किसी राजनैतिक बंदी को ब्रितानिया अदालत में फांसी की सजा नहीं सुनाई गई थी। क्योंकि मृत्युदंड जघन आपराधिक मामलों में ही सुनाई जाती थी। अदालत में होने वाले फैसले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रभाव बनाने में नाकाम हो जाते थे जबकि जलियांवाला बाग़ गोलीकांड जैसे जनसंहारों पर इंग्लैंड की राजशाही उर्फ़ संसद का तख्ता हिल जाता था। ऐसे में अहिंसा की मशाल लेकर निकले गाँधी शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का समर्थन करते तो मुमकिन था कि अन्य युवाओं में हिंसक क्रांति का सन्देश जाता और वह खुद भी हिंसक रास्ते पर निकल पड़ते। इसके अलावा अंग्रेजों को इस आधार पर मौका मिल जाता और वह गाँधी के बेक़सूर साथियों को झूठे मामलों में फंसाकर फांसी चढ़ाते जाते और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली आलोचना/समीक्षा से बचे रहते। शीत युद्ध के इस दौर में इंग्लैंड की हुकूमत ऐसी आलोचनाओं से बचे रहने की कोशिश में थी लेकिन लगातार अंतरार्ष्ट्रीय मंचों से उठने वाली आवाजें भारत के पक्ष में माहौल बनाने में कामयाब हो रही थीं। 

असल में भगत सिंह और गाँधी की तुलना करना ही उनके अपने आदर्शों से नाइंसाफी है। भगत सिंह जहाँ युवाओं में क्रांति की ज्वाला भर रहे थे वहीं गाँधी युवाओं को शांति और साहस का पाठ पढ़ा रहे थे। युवाओं को इन दोनों ही आदर्शों के सामंजस्य की जरुरत थी जिसे आगे जाकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने खाद पानी दिया। भारत भगत सिंह और गाँधी दोनों का देश है, किसी को कमतर आंकना भारत की आत्मा की हत्या करने जैसा है।  

आखिर में सवाल तो यह भी है कि देश की दोनों आत्माओं को आमने-सामने खड़ा कर युवाओं को गुमराह करने वाली आरएसएस व विहिप जैसी संस्थाएं यह क्यों नहीं बताती हैं कि जब भगत सिंह जेल में थे और उन्हें फांसी होने वाली थी तब उनके माफ़ीवीर सावरकर, उनके गुरु हेडगेवार, गोलवलकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, गोडसे जैसे महारथी कहाँ थे और इन लोगों ने भगत सिंह के पक्ष में कितने आंदोलन किये? 

टिप्पणियाँ

  1. आपके इस लेख में अभिव्यक्त विचारों से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ बीना जी । दोगले और ख़ुदगर्ज़ नेता इस बात को कैसे समझ सकते हैं कि भगत सिंह और मोहनदास गाँधी दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे ?

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  2. जी सही कहा आपने.. शुक्रिया

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