स्टोर रूम में पड़े-कराहते 'ख्वाब' की दास्ताँ

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बचपन में मोबाइल पर आने वाली शायरियों को नोटबुक पर दर्ज करने वाली रूपा अपने किशोरावस्था की ड्योढ़ी पर खड़ी ही हुई थी कि एक रोज कॉलेज की एक वर्कशॉप पर उसकी मुलाकात विजय से हुई। एक दूसरे कॉलेज से वर्कशॉप में हिस्सा लेने आया विजय, रूपा का पहला क्रश बन गया। रूपा पर नोटबुक में दर्ज शायरियों का नशा तारी था, ऐसे में विजय में रूपा को इश्क़ का खुदा नज़र आया। लेकिन संकोचवश वह विजय से बात तक न कर सकी। वर्कशॉप को लगभग तीन महीने गुजर चुके हैं। रूपा की नज़र पर विजय का चेहरा और उसकी सरलता मानों ठहर सी गई है। एक दिन उसके मोबाइल की घंटी बजी, रूपा ने रिसीव किया, उस तरफ से आवाज़ आई 'हेलो रूपा! मैं विजय'। 

उफ़ यह क्या! रूपा की जुबान चिपकी रह गई, गले से आवाज ही नहीं निकल रही। उधर से फिर आवाज आई 'रूपा मैं विजय, पहचाना मुझे? हम वर्कशॉप में मिले थे?' रूपा अपने आपे में आते हुए बोली- 'हाँ विजय, कहो कैसे हो? मेरा नंबर कहाँ से मिला?' विजय ने जवाब दिया- कल आपके अतुल सर मिले थे, उन्हीं से मिला। रूपा, क्या हम मिल सकते हैं?' रूपा ने जवाब में 'हाँ' कह दिया। समय और जगह तय हुई। पहली मुलाकात से दूसरी मुलाकात, दूसरी मुलाकात से फिर मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया साथ ही फ़ोन और मैसेज का दौर भी। 

रूपा श्रृंगार रस में आकंठ डूबती जा रही थी। हर पहर सिर्फ विजय और विजय ही उसका हर पहर हो रहा था। दो साल बीत गए, रूठते-मनाते इश्क़ की कश्ती मोहब्बत के समंदर के एकदम बीचोबीच पहुँच रही थी। आख़िरकार कश्ती में भारी झटकों और तेज तूफानों की आमद ने दस्तक दे ही दी। विजय की मोहब्बत रूपा पर अपनी मिल्कियत साबित करना चाहती थी, जबकि खुद आज़ाद परिंदे की तरह आसमान में उड़ने को अपना हक़ समझ रही थी।  रूपा अपने 'इश्क़ के खुदा' में आये इस बदलाव को देख रही थी। समझ नहीं आ रहा था वह इस दोधारी बदलाव को रोके कैसे। विजय से बात करने की कोशिश हर बार नाकाम हो रही थी। ये नाकामियां अब दोनों के रिश्ते में दरार ला रही हैं। एक दिन दोनों ने बैठ कर बात की और कुछ दिनों के लिए दूर जाने का फैसला किया। तय हुआ कि कुछ दिनों के लिए अलग रहने के दौरान अपनी इश्क़ की गहराई को फिर से मापा जाएगा। बात बनीं तो इश्क़ मुकम्मल होगा, न बनीं तो रास्ते अलग होंगे। 

शायरी, इश्क़ और अलगाव के बीच विजय और रूपा के निजी दिलचस्पियों में बड़ा फर्क आ रहा था। इश्क़ से पहले दोनों अपनी-अपनी जिंदगियों में एक नया ख्वाब सजाते रहते, फ़िल्मी गाने सुनते, उन्हें गुनगुनाते, कॉमेडी देख कर जी भरके हँसते, ग़ज़ल सुनते, लोगों के बीच बैठकर दिन भर गप्पे लड़ाते। दोस्तों के साथ रोमांटिक फिल्मे देखते और फिर हीरो-हीरोइन में अपने महबूब का अक्स देखते। खूब ख्वाब बुनते। फिर इश्क़ हुआ। दुनिया विजय और रूपा में सिमट गई। दोनों अपनी दिलचस्पियों को एक दूसरे के साथ साझा करते। उनका घूमना-फिरना, फ़िल्में देखना, गाने और ग़ज़ल गुनगुनाना एक साथ होता। रोमांटिक कहानियां पढ़ना फिर उसे एक दूसरे से सुनना कितना अच्छा लगने लगा था!

फिर एक दिन ऐसा आया कि अपने लिए बसाई गई इश्क़ की इस छोटी दुनिया में दोनों की अपने-अपने लिए स्पेस की तलाश शुरू हुई। दौर अलगाव तक आ पहुंचा। दोनों की राहें फिर कभी मिलने की आस में अलग हो गईं। अब दोनों के ख्वाब किसी स्टोर रूम में फिर से जगने तक सफ़ेद कपडे से ढँक कर रख दिए गए। 

सुना है, दोनों ने अपनी मनमर्ज़ियों से मुंह फेर लिए है। अब उन्हें फ़िल्मी गाने नहीं सुहाते, ग़ज़ल सुने ज़माना हो गया है। कॉमेडी सीन उन्हें हंसाने में नाकाम हो जाते हैं। रोमांटिक फिल्मों में अब उन्हें अपने महबूब का अक्स नहीं नज़र आता बल्कि अब उन्हें एक्टिंग और फिल्म के क्रू मेम्बरों के नाम रट गए हैं। उन्हें यह समझ में आ गया है कि परदे पर जीवंत कहानियां असलियत से काफी दूर होती हैं। खुदा जाने, विजय और रूपा के 'ख्वाब' कब तक स्टोर रूम की खाक में पड़े -पड़े कराहते रहेंगे। 

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