फैसला ' अपने जैसा बने रहने का'

  
अमूमन मैं मेकअप नहीं करती. घर से बाहर निकलते समय एक फेयरनेस क्रीम और काजल ही मेरा पूरा मेकअप होता है. आज कई महीनों पहले ली गई एक लिपस्टिक लगाते हुए बरक्स एक सवाल जेहन में कौंध आया.. मैं मेकअप नहीं करती हूँ तो फिर ये लिपस्टिक लगाते हुए मुझे अच्छा क्यों लग रहा है? ठीक उसी समय अचानक सेक्शन 377 का ख्याल हो आया. काजल, पाउडर, लिपस्टिक, फाउंडेशन, आई लाइनर, ब्लशर सहित मेकअप में इस्तेमाल होने वाली चीजों पर केवल और केवल स्त्रियों का एकाधिकार क्यों? पुरुषों के वस्त्र, उनकी हेयर स्टाइल, उनके एकाधिकारिक कार्यक्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश जब समानता के परिप्रेक्ष्य से औचित्यपूर्ण है तो महिलाओं के मेकअप या फिर यूँ कहें कि सजने-संवरने और खूबसूरत दिखने की चाह वाले अब तक के एकाधिकार पर पुरुषों का प्रवेश क्यों वर्जित रखा गया था?  

मनचाहे बाहरी या आतंरिक सौंदर्य को परिष्कृत करने का हक़ सभी लिंगों को बराबर मिलना चाहिए फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष.. या फिर क्वीर (LGBT) ... आज जबकि हर तरह की पाबन्दी या ड्योढ़ी को पार कर एक नई दुनिया में प्रवेश किया जा रहा है तो फिर पुरुषों के साथ ऐसी ज्यादती क्यों! 

हाँ, मैं जानती हूँ कि ज्यादातर पुरुष, बल्कि 'बहुत' ज़्यादातर पुरुष मेकअप जैसी स्त्री एकाधिकृत चीजों को अपने क्षेत्र से बाहर का मानते हैं.  लेकिन उन्ही में कई ऐसे पुरुष भी हैं जिन्हे सजना-संवरना पसंद हैं, वह चाहते हैं स्त्री जैसा खूबसूरत दिखना. और अगर ऐसा नहीं होता तो ट्रांस जेंडर की थ्योरी कभी सामने नहीं आती. ऐसे में उनसे उनकी इस चाहत को सामाजिक बंधन की बलि पर चढ़ा देना 'समानता के अधिकार' से उन्हें वंचित कर देने जैसा ही है. LGBT में LGB को पहचान पाना सरल नहीं होता. अबसे पहले संवैधानिक अधिकार मिलने तक   LGB  यानी लेस्बियन, गे और बाय सेक्सुअल अपनी पहचान जाहिर करने से हिचकते थे. जबकि ट्रांस जेंडर के साथ ऐसा कम ही होता था. वह LGB से ज़्यादा खुले थे. शायद यही वजह रही कि वह सबसे ज़्यादा आलोचनाओं के शिकार भी हुए. ट्रांस जेंडर समुदाय कभी खुलकर तो कभी चोरी-छिपे सजते-संवरते और फिर चुपचाप सामाजिक बंधनों की बेदी पर खुद को चढ़ा कर आगे बढ़ जाते. 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा हालिया में आया फैसला जिसमे सहमतिपूर्ण हुए समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध माने जाने से इंकार कर दिया गया, उसने निःसंदेह रूप से क्वीर समुदाय को ख़ुशी का तोहफा दिया है, लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा ट्रांस जेंडर कम्युनिटी को मिली राहत से ख़ुशी मिली है. 'अपने जैसा होने का हक़ सभी को मिलना ही चाहिए. क्यों कोई और बताये 'तुम्हारी पहचान क्या है?' क्यों किसी को अपने जैसा होने में इसलिए दिक्कत हो क्योंकि दूसरा उसे वैसा होने नहीं देना चाहता! यह सवाल केवल लिंग या यौन संबंधों की आजादी का ही नहीं बल्कि धर्म, जाति, रंग, भेद, क्षेत्र व्यवसाय सभी से जुड़ा है. कम से कम अपने लिए फैसला लेने की आजादी सभी को मिलनी ही चाहिए. 

टिप्पणियाँ

  1. आपके विचार बिल्कुल सही हैं बीना जी । इस न्यूनतम स्वतंत्रता के बिना किसी भी मानव के जीवन का अर्थ ही क्या ?

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  2. जी सही कहा 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं'

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