अपने हक पर चुप्पी क्यों?


आज सुबह-सुबह गुंजन ने नाश्ते की टेबल पर आलू का परांठा रखा देखा तो तमतमा गई। लगभग चीखते हुए बोली-"मम्मी कितनी बार कहा है कि मुझे हल्का नाश्ता दिया करो, लेकिन आप जब देखो आलू के पराठे ही बनाकर रख देते हो।" इतना कहकर मुंह बनाते हुए गुंजन कालेज चली गयी। इससे पहले भी वह अपने कपड़ों को लेकर मम्मी पर चिल्ला चुकी थी। 

इसी तरह एक दूसर वाकया भी है। सीमा अपनी जीवनशैली और रहन-सहन को लेकर किसी भी तरह का समझौता पसंद नहीं करती थी लेकिन जब उसकी शादी उसके माता-पिता ने कम योग्य लड़के से तय की, तो वह चुप रही। सीमा को जानने वाले सभी लोग सीमा की इस चुप्पी से हैरान थे।

हमारे समाज की ये दो तस्वीरें एक प्रकार से आम जीवनचर्या का हिस्सा हैं। दरअसल अपने तौर-तरीकों और पहनावे तथा खान-पान को लेकर बेहद मुखर लड़कियां स्वयं से कम योग्य लड़के से चुपचाप विवाह के लिए हामी भरती हैं तो आश्चर्य होता ही है। विवाह को समाज का स्थायी स्तंभ माना जाता है। कहा भी जाता है कि विवाह ही समाज व विश्व को पीढ़ी दर पीढ़ी एक स्थायी आलंब प्रदान करता है। विवाह नामक इस संस्था को जारी रखने के लिए आवश्यक है कि जिन दो व्यक्तियों के बीच यह बंधन बंधे, वे एक-दूसरे के योग्य हों। इससे आपसी तालमेल एवं सामंजस्य बनाये रखने में सहायता मिलती है।
बीते जमाने में जब बाल विवाह का प्रचलन था तब वर-वधू का बाल्यावस्था में विवाह कर दिया जाता था। इसके पीछे धारणा थी कि ये वर-वधू अपने जीवन साथी का उचित चयन करने की समझ नहीं रखते हैं। अतएव उनके अभिभावक उनके जीवन साथी का चयन अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।
समय के साथ बाल विवाह को अवैधानिक एवं अमानवीय परम्परा मानकर समाप्त कर दिया गया। किन्तु वर-वधू का चयन उनके अभिभावक ही करते रहे। क्योंकि वधू यानी लड़की जिसे अब भी एक सम्पत्ति माना जाता है को अपने जीवनसाथी का चुनाव करने योग्य नहीं समझा जाता है। जबकि स्थिति आज पूर्व की स्थिति के विपरीत हो रही है। आधी आबादी यानी लड़कियों का दायरा बढ़कर अब घर की चैखट से बाहर की दुनिया तक आ रहा है। न केवल सामाजिक बल्कि मानसिक दायरा बढ़ा बल्कि उनकी सोच समझ में भी काफी बदलाव आया है। स्थिति में परिवर्तन आया किन्तु इस मानसिकता में नहीं बल्कि लड़की अपने जीवनसाथी का चुनाव करने में स्वयं सक्षम है।
फिलहाल यहाँ मुद्दा यह है कि महिलाओं को न केवल संवैधानिक एवं वैधानिक अधिकार मिले हैं बल्कि आवश्यकता इस बात की भी है कि उन्हें सामाजिक व मानसिक अधिकार भी मिले। रीतियां एवं परम्पराएं समय के साथ अप्रासंगिक हो जाती हैं क्योंकि आवश्यकताओं की पृष्ठभूमियां भी बदलती रहती हैं। आवश्यकता के अनुरूप ही रीतियों एवं परम्पराओं का सृजन होता है। अतएव जरूरी है कि सृष्टि की निरंतरता एवं स्थायित्व में सामंजस्य बनाये रखने के लिए सृजित की गई ‘विवाह’ नामक संस्था में कुछ नए परिवर्तन किए जाएं। अभिभावक के संरक्षण में लड़कियां अपने जीवनसाथी का चयन स्वयं करें। सिर्फ अभिभावक द्वारा चयनित वर पर चुपचाप अपनी हामी भर देना और भविष्य में उस जीवनसाथी से सामंजस्य न बिठा पाना विवाह नामक संस्था की नींव को कमजोर ही करता है।
बदलते परिवेश में जीवन को स्थायी स्तम्भ देने वाली इस संस्था को अब इससे जुड़े दो जनों की आपसी सहमति की आवश्यकता है। यह आपसी सहमति न केवल विवाह को दीर्घ आयु प्रदान करेगी बल्कि दहेज प्रथा, बाल विवाह, विवाह विच्छेद एवं पति-पत्नी के मध्य कटुता का समाधान करेगा। लड़कियों के विवाह के प्रति मुखर होना शर्म की बात होने की अपेक्षा वर्तमान समय की आवश्यकता है। साथ ही जीवन किसके साथ बिताना है, यह निर्णय करने का अधिकार उनका स्वाधिकार भी है। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वैवाहिक मामलों में अभिभावकों का फैसला सही नहीं होता है। कहने का आशय यह है कि वैश्वीकरण के दौर में जबकि लड़कियों का दायरा बढ़ा है उनकी रूचियों एवं समझ में भी विस्तार आया है। अतएव विवाह जैसा गंभीर निर्णय अभिभावकों द्वारा थोपे जाने के बजाय उनके संरक्षण एवं मार्गदर्शन में होना बेहतर होगा।
अदालतों में तलाक के विचाराधीन मामलों की बाढ़ एवं निरंकुश खाप पंचायत पर अंकुश लगाने का यह बिल्कुल उचित माध्यम बन सकता है। एक बात यह भी है कि हर समय अपनी मनमानी का परचम बुलंद करने वाली लड़कियों को अपने जीवनसाथी के चुनाव में भी मुखर होना पड़ेगा। विवाह समाज का मजबूत आधार है उसका संरक्षण भी आवश्यक है। अतएव इस आधार को बनाये रखने के लिए लड़कियों को लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी मृग मरीचिका से बाहर आकर अपनी चुप्पी तोड़नी ही होगी। अपने खान-पान एवं पहनावे के प्रति कोई समझौता न करने वाली लड़कियों को अपने जीवनसाथी के चुनाव में अपनी चुप्पी को तोड़ना ही होगा। यह न केवल उनका हक है बल्कि विवाह नाम की संस्था को जारी रखने के लिए आवश्यक भी है।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सीमा तक सहमत हूँ मैं आपके इन विचारों से बीना जी । एक बात जोड़ना चाहूंगा इस संदर्भ में कि कन्याओं को उनके इस हक़ से वंचित करने में प्रायः परिवार की महिलाएं ही अग्रणी हो जाती हैं । ऐसा नहीं होना चाहिए । जहाँ तक लिव-इन का प्रश्न है, यह उन महिलाओं के लिए ही ठीक है जो आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पूर्णतः आत्मनिर्भर हैं । सामाजिक सम्बन्धों के इस रूप को समझने के लिए आपको अभी अधिक श्रम एवं गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है । इसे निरपेक्ष रूप से बुरा न कहें । एक पीड़ादायी वैवाहिक संबंध से यह निश्चय ही बेहतर है ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

'विश्व पुस्तक दिवस' आज, क्यों मनाते हैं किताबों का यह दिन? जानें

बाल दिवस पर विशेष - "हिन्दू-मुसलमान एकता की जय"!

निज़ाम, आवाम और भीड़ का किस्सा..