निज़ाम, आवाम और भीड़ का किस्सा..

सब दिख रहा था , सब समझ आ रहा था.
यही सिलसिला चुपचाप चल रहा था.
फिर उनमें से कुछ बोलने लगेे.
जो सोए या उन्नींदे थे वे हरक़त में आने लगे.
झुकीं नज़रों और बंद जुबां के आदी निज़ाम को
कुछ सुनने की आदत नहीं थी.

लोग उसी बहरे निज़ाम को आईना दिखाने लगे
निज़ाम ने फिर पैंतरा बदला और सुनाने लगा अपने मन की बात
चीख-चीख कर उसी आईने को झूठा कहने लगा.
ह्ह्ह्हं नादान निज़ाम आईने को झूठा बता रहा था
जिस आईने में खुद उसी का अक्स दिख रहा था
जो कीचड़ उसने औरों पर उछाले,
वही खुद उसके दामन पर आ गिरे..

आवाम ने जब आवाज़ और बुलंद की तो
निज़ाम ने सुनाई और दिखाई देने के सारे तार काट दिए.
खलबली मच गई, निज़ाम और उसकी ताक़त एक तरफ़
आवाम और उसकी आवाज़ दूसरी तरफ़
बीच में दांव पर लगी थी मुल्क की तरक्की और इज़्ज़त..

ओह इज्ज़त से याद आया!
माताओं और बहनों की खिदमत के दम पर हुकूमत करने आया निज़ाम
अब उन्हीं बेटियों की अस्मत पर हाथ डालने वाले से हाथ मिला रहा था
उसके साथ फोटो खिंचवा रहा था, हार फूल पहना रहा था..
किसान और व्यापारी ख़ुदकुशी कर रहे थे और
नौजवान हो रहे थे दंगाइयों में शामिल..
आवाज़ उठाने वाले या तो मारे जा रहे थे
या फिर क़ैद किए जा रहे थे.

निज़ाम नई नई चालें चल रहा था
उलझा रहा था लोगों को धर्म जाति के भरम मे
और इस आंच में अपने लिए केक पका रहा था..
मुल्क की तरक्की कुछ हाथों में सिक्के खनका रही थी
बाकी हाथ अपने पैर लिए लाइनों में खड़े थे..
कभी अपना मज़हब तो कभी अपने बाप-दादाओं
की पैदाइश का दस्तावेजी सबूत तलाश रहे थे.
मुल्क की आमद सिक्कों में घट रही थी और
दुनिया की नज़रों में भी..

इन सबसे अलग निज़ाम ने हवा में क़ौमी चरस घोल रखा था
नतीजतन उसने अपने पीछे बिना मगज की भीड़ जमा रखा था..
जो सच बोलने वालों की जुबान काट देती
तो कभी उनकी लाशों पर अपना झंडा गाड़ देती..
भीड़ और निज़ाम के बीच सब बढ़िया था
बाकी झूठ बिना पैरों के भी तन कर खड़ा था..
अब जरा आस-पास देख लो और
'था' को 'है' में बदल कर खुद ही समझ लो..

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