आर्टिकल 15 : फिल्म... 'मजेदार' नहीं थी ...

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किसी फिल्म के धांसू संवादों पर बजने वाली सीटियां व तालियों की गड़गड़ाहट आज पहली बार मन को चुभ रही थीं। अंतिम सीन में अयान रंजन का एक दादी से यह पूछने पर कि 'कौन जात हो?' के बाद ऑडिटोरियम में लगे तेज ठहाकों ने जैसे कानों में दहकते अंगारे रख दिए! बाहर आते दर्शकों के मुंह से जब सुना कि 'फिल्म बड़ी मजेदार थी', लगा फिल्म का उद्देश्य कहीं इसी मजे में खो गया। फिर सोचा हाँ शायद मजेदार ही रही होगी क्योंकि बजबजाते सीवर से निकलने वाले 'उन लोगों' को देखने के हम आदी हो गए हैं। पेड़ से लटकती दो लाशों के आस पास घूमते व खड़े होकर निहारते बच्चों को देखकर हमारा मन नहीं कांपता। एक दृश्य में जहाँ अयान अपने सहयोगियों से उनकी जात पूछ रहे होते हैं उस दृश्य में दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों के ठहाके जातिवादी समाज के आदी होने का अहसास करा रहा होता है। फिल्म की शुरुआत में जब अपनी पहली पोस्टिंग पर नियुक्त हुए एएसपी अयान रंजन के स्वागत में आयोजित पार्टी में शराब की चुस्की लेते हुए सवर्ण अयान एक एससी सहयोगी की प्लेट से चखना उठाने को हाथ बढ़ाते हैं और वह अपनी प्लेट हटाते हुए दूसरा लाने को कहता है, तब के दृश्य में हॉल में छूटी हंसी एक बार फिर से जाति प्रथा को हटाने के मंसूबों पर पानी फेर देती है।
फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे जातिगत संरचना का कथित उच्च तबका निचली जाति की दुकान से मिनरल वाटर लेने और उनके साये से भी खुद को दूर रखने का छलावा तो करता है लेकिन वही मौका मिलने पर नाबालिग दलित बच्चियों पर चढ़ जाता है और अपनी हवस पूरी करता है। व्यवस्था का वह सच जो सबको पता है लेकिन कहने से गुरेज किया जाता है, फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे व्यवस्था वोटों के लिए अपने घर से खाना व बर्तन दलितों के घर पहुंचाता है और फिर वही खाना महंत जी यानी ऊँची जाति का धर्म में रंगा राजनीतिक सियार दलित के घर का खाना बता कर खा रहा है। और कैसे चारण मीडिया उसका महिमामंडन करता है!
सच कहूं तो मुझे आर्टिकल 15 देखकर 'मजा' नहीं आया। क्योंकि सीधे गालों पर पड़ने वाले तमाचे कभी 'मज़ेदार' नहीं होते। अनुभव सिन्हा आपने व आपकी पूरी टीम ने फिल्म में मेहनत तो खूब की जो परदे पर ईमानदारी से दिखी भी लेकिन अफ़सोस सोच व सामाजिक जातिगत संरचना पर पड़ने वाले जोरदार तमाचे 'मजेदार मूवी' के चक्रव्यूह में फंस कर इसके सेंट्रल आईडिया से हट गए हैं। अंत में यही कहूँगी कि आर्टिकल 15 में मजा खोजने के बजाय जब वातानुकूलित हॉल से बाहर आएं तो बाहर का तापमान यानि किसी भी तरह के भेदभाव व छुआछूत को जरूर याद रखें। यही भेदभाव व छुआछूत 70 प्रतिशत आबादी को न केवल नोच रहा है बल्कि भारतीय संविधान के 'हम भारत के लोग' को दिनों दिन खोखला कर रहा है। 'मजे' के फेर में सच को पॉपकॉर्न के पैकेट व कोल्ड ड्रिंक के डिब्बे के साथ डस्टबिन फेंक कर मत आ जाना। क्योंकि तुम्हारे इसी सच को कहीं कोई सीवर या नाले में उतर कर ढो रहा है।
(मूवी के रिव्यु में इतना पढ़ चुकी हूँ कि वही बातें दोहराना सही नहीं लगा। फ़िलहाल फिल्म में जाति व्यवस्था पर जो झन्नाटेदार तमाचा खाने को मिला है, उसे देखते हुए यह जरूर कहूँगी कि 'तमाचा अच्छा है')

टिप्पणियाँ

  1. मज़े लेने के लिए यह फ़िल्म देखनी भी नहीं चाहिए बीना जी । तमाचा खाने का माद्दा हो तो ही देखनी चाहिए । मुल्क के मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसी फ़िल्म बनाना ही बड़े साहस का काम है जिसके लिए फ़िल्म बनाने वालों की पीठ थपथपाई जानी चाहिए । फ़िल्म ने (और उसे देखने के दौरान हुए अनुभवों ने) आपकी भावनाओं को झकझोरा जिसे आपने ईमानदाराना अभिव्यक्ति दी । अच्छा किया आपने ।

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