कोरोना संकट के दौरान बेरोजगार और बेघर हुए दुनिया भर के मजदूर, क्या एक होकर मांगेंगे अपना हक़?
कहते हैं जहाँ समस्याएं अपनी हद पार करने लगती हैं, समाधान अपना रास्ता वहीं से निकालता है, जैसे दाब जब अपने ऊपर रखी किसी भारी चीज से ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है, वह उसे पलट कर सीधा बाहर निकल आता है, ठीक वैसे ही। ऐसा ही कुछ हुआ औद्योगिक क्रांति के गढ़ संयुक्त राज्य अमेरिका में। जहाँ पूजीपतियों की औद्योगिक आकांक्षाओं ने अपने मातहत काम करने वाले मजदूरों को बस मशीन समझा और बेहद ख़राब परिस्थितियों में भी उन्हें काम करते रहने को मजबूर करते रहे। 19 वीं शताब्दी के दौरान, औद्योगिक क्रांति के चरम का नुकसान संयुक्त अमेरिका के हजारों पुरुष, महिलाएं और बच्चे अपनी असामयिक मौत और अपने अंगभंग से पूरी कर रहे थे। ये कामगार 15 से १८ घंटे बिना किसी सुरक्षा सुविधा के लगातार काम करते थे, लेकिन इनके काम की कमाई का हिस्सा पूंजीपतियों की जेब और उनकी ऊँची महत्वाकांक्षाओं में खर्च हो जाता था। हाड़तोड़ मेहनत के बदले कामगारों के हिस्से आती भूख, बीमारी और अकाल मौत।
इन अमानवीय स्थितियों को समाप्त करने के प्रयास में, 1884 में फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन्स (जो बाद में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, या AFL) बन गई, ने शिकागो में एक सम्मेलन आयोजित किया। FOTLU ने घोषणा की कि 1 मई, 1886 से अब मजदूरों के श्रम अवधि दिन में केवल आठ घंटे होगी। "
अगले साल फिर अमेरिका के सबसे बड़े श्रमिक संगठन 'नाइट्स ऑफ लेबर'- FOTLU की इस घोषणा का समर्थन किया फिर दोनों समूहों ने मजदूरों को अपने हक़ के लिए हड़ताल और प्रदर्शन करने का रास्ता सुझाया।
1 मई, 1886 को, देशभर के 13,000 पेशों से 300,000 से अधिक श्रमिकों (अकेले शिकागो में 40,000) ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं। बाद के दिनों में इस काफिले में और मजदूर शामिल हुए और हड़तालियों की संख्या बढ़कर लगभग 100,000 हो गई।
दो दिनों बाद शिकागो पुलिस ने खुला कत्लेआम किया और हेमार्केट में भारी जनसंहार हुआ। मजदूर फिर भी अड़े रहे और दुनिया भर खासकर यूरोप के समाजवादी संगठनों से मिले समर्थन के बाद आखिरकार 1891 में अमेरिका को झुकना पड़ा और जहाँ सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूर दिवस घोषित किया गया। कनाडा ने भी जल्द ही यही प्रथा अपना ली।
1889 में, समाजवादी और श्रमिक दलों द्वारा बनाई गई संस्था द सेकंड इंटरनेशनल ने घोषणा की कि 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाया जाएगा। आखिरकार 1916 में, अमेरिका ने वर्षों के विरोध और विद्रोह के बाद आठ घंटे को श्रम अवधि को अपनी स्वीकार्यता दे दी।
1917 में रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ और शीत युद्ध के दौरान ईस्टर्न ब्लॉक राष्ट्रों में से तमाम ने 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में अपना लिया।
हिंदुस्तान में मई दिवस पहली बार 1 मई 1923 को मनाया गया, जब लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदुस्तान ने इसकी शुरुआत की और कॉमरेड सिंगारवेलर (सिंगारवेलु चेट्टियार) ने इस समारोह को आयोजित किया। दो सभाओं, ट्रिप्लिकेन बीच पर और दूसरा मद्रास हाईकोर्ट के सामने स्थित समुद्र तट पर जुटे तमाम मजदूर नेताओं और कामरेड की मौजूदगी में यह मांग की गई कि मजदूर दिवस पर राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना चाहिए।
इन सब संघर्षों का नतीजा यह रहा कि महामारी के इस भयानक दौर में आज भारत में लाखों मजदूर बेघर और बेरोजगार होकर कभी सरकार से रहम की उम्मीद कर रहे हैं तो कभी किसी दानवीर के! किसानों, छात्रों, आरक्षण और किसी विवादित अधिनियम को छोड़कर क्या किसी को याद है कि मजदूरों के लिए पिछला आंदोलन/हड़ताल कब हुआ था? वो मजदूर जिन्हें अपने घर तक पहुँचने के लिए जान का जोखिम उठाना पड़ रहा है, अगर कहीं इस कोरोना नाम की महामारी से उबर गए तो क्या उनके जीवन और काम की सुरक्षा के लिए किसी आंदोलन का कोई सिरा किसी हाथ में नज़र आता दिख रहा है?
बिहार के एक मंत्री ने कल यह कहते हुए अपने प्रदेश के मेहनतकशों को वापस लाने की संभावना से इंकार कर दिया 25 लाख से अधिक लोगों को बस के जरिये अपने राज्य में लाना मुमकिन नहीं क्योंकि उनके पास डेढ़ लाख बसें नहीं हैं! क्या कोरोना के बीत जाने के बाद कोई देशप्रेमी उनकी कॉलर पकड़ कर यह सवाल करेगा कि विशाल संसाधनों, तमाम कथित सरकारी योजनाओं, आवास और रोजगार के होने के बावजूद इतनी भारी संख्या में इन पंजीकृत/गैर पंजीकृत मजदूरों को अपना घर क्यों छोड़कर दूसरे राज्यों में इस तरह बेघर और बेरोजगार होने क्यों जाना पड़ा?
बीते कुछ अरसों को देखते हुए ऐसा होना मुझे संदिग्ध लगता है। जाने क्यों लगता है कि ये मजदूर एक बार फिर सरकारी योजनाओं वाले घरों के सामने बने शौचालय, उनके खातों में आये चंद रुपयों और सियासी नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों में फिर आ जाएंगे। जाने क्यों लगता है कि अराजनीतिक लोग ही राजनीति के सबसे बड़े शिकार हैं जिसे जब चाहे छला जा सकता है, कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर। यही वजह है कि उनका यूँ छला जाना मुझे उनका भाग्य सा लगने लगा है, पता नहीं सौभाग्य या दुर्भाग्य...
आपने यह लेख सवा साल पहले लिखा था बीना जी। मज़दूरों का क्या हुआ, आप देख चुकी हैं। ऐसे में आपके इस लेख का अंतिम परिच्छेद ही सत्य प्रतीत होता है। दुर्भाग्य ही है यह - उनका भी, देश का भी, समाज का भी, मानवता का भी।
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