यह कलियुग है जहाँ राम नहीं रावण है प्रासंगिक!



पूरा भारत रावण का एक त्यौहार 'विजयदशमी यानी दशहरा' मना रहा है. हाल ही में भारत में हुए बड़े राजनीतिक बदलाव के बाद 'राम-रावण' का सन्दर्भ एक ज्वलंत मुद्दा बन चुका है. हर किसी को यहाँ राम की तलाश है और रावण पर अपना क्रोध जताने वालों की संख्या न तो अँगुलियों पर गिनी जा सकती है और न ही यह संभव है. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि आज के दौर में राम से ज़्यादा रावण प्रासंगिक है तो मुमकिन है ऐसा कहने वाला आज के परिवेश में 'राष्ट्रद्रोही' की श्रेणी में रख दिया जाय. फिर भी सत्य और तथ्य को नकारा जाना भी आने वाली पीढ़ी के प्रति किसी बड़े अन्याय से कम नहीं होगा. राम की प्रासंगिकता क्यों समाप्त हो रही है इससे पहले रावण क्यों प्रासंगिक है,इस पर विचार कर लेना आवश्यक है.

पहली बात तो यह है कि राम-रावण की कथा त्रेतायुग की है जिसमे जीवन के हर क्षेत्र के मानदंड आज के युग यानी कलियुग से एकदम विपरीत थे. राजतन्त्र में वही राजा सबसे प्रभावशाली माना जाता था जिसने विश्व पर विजय हासिल कर ली हो. रावण ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए विश्व विजय करने की ठानी जो उस वक़्त के राजनीतिक मानदंडों से कतई गलत नहीं है. हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार रावण ने तीनों लोकों को जीत लिया. वह प्रकांड विद्वान् भी था शायद यही कारण है कि स्वर्ग के विलास में डूबे देवगण उसके समक्ष टिक नहीं सके. बुद्धिबल यानी कूटनीति से शत्रुओं पर विजय हासिल करने की कला आज के युग की सबसे बड़ी जरुरत है. राजनीति में रावण की बल और बुद्धिनीति भारत में अपनाई जाने योग्य है. पड़ोसी देशों से भारत के सम्बन्ध निरंतर ख़राब हो रहे हैं . यह देखते हुए भारत को बलनीति की जगह कूटनीति का प्रयोग करना होगा जिससे चीन की कूटनीति को नाकाम किया जा सके जो वह नेपाल, भूटान,बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका पर आज़मा रहा है. जिसके चलते इन पड़ोसी देशों से भारत के सम्बन्ध तीखे हुए हैं.

रावण प्रकाण्ड विद्वान था जिसे यह पता था कि विधि अनुसार शासन कैसे किया जाए. यही कारण था कि लंका में विभीषण को छोड़कर कोई भी अन्य रावण के विरोध में नहीं आया. यदि वह अपने राज्य में निरंकुश और अन्यायी होता तो लंका दहन के बाद भी उसकी प्रजा उसके साथ खड़ी नहीं होती. वहीँ राम को अयोध्या से कोई मदद नहीं आयी जबकि वह अयोध्या के सबसे प्रिय राजकुमार माने जाते थे. यह जानने के बाद भी कि सीता का हरण हो चुका है और लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में है, अयोध्या की प्रजा अपने राम के वापस आने की प्रतीक्षा के सिवा कुछ नहीं कर सकी.

रावण की बहन शूपर्णखा की नाक कटने के बाद वह क्रोधित हो गया जबकि उसे अंदाजा था कि शूपर्णखा की नाक क्यों कटी. लेकिन इन सबके बावजूद उसने बहन से अग्निपरीक्षा देने को नहीं कहा. इस सन्दर्भ से देखा जाए तो रावण महिला स्वतंत्रता के बारे में सजग था. वहीँ राम जिसने एक श्रेष्ठ राजकुल की कन्या से विवाह किया और उसे सुरक्षित और खुश रखने का वचन लिया था, ने सीता की अग्नि परीक्षा ली. राम जिसे भगवान माना गया है, क्या वह अपनी पत्नी के चरित्र से अनभिज्ञ थे? एक धोबी के कहने पर अग्नि परीक्षा में खरी उतरी गर्भवती पत्नी सीता को वन में भटकने को अकेला छोड़ देना कहाँ तक उचित है और आज के दौर में राम की प्रासंगिकता को यह कहाँ तक बढ़ाता है! क्या इसका जवाब है किसी के पास?

प्रणय निवेदन लेकर आयी शूपर्णखा की नाक काट देना कितना सही था? बहन का अंग भंग होने के बावजूद सीता हरण कर लाये रावण ने सीता को अपने राज्य में सुरक्षित रखा. किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती नहीं की. यहाँ तक कि सीता की सेवा के लिए महिला परिचारिकाएं नियुक्त की गईं. एक मान्यता के अनुसार रावण ने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे कुबेर की पत्नी से श्राप मिला था. एक बार को यह मान लिया जाए कि यह सच है तो क्या वह किसी दूसरे से कहकर सीता का मानभंग नहीं करवा सकता था? उसकी सेवा में रहने वाला कोई भी राक्षस ऐसा ख़ुशी ख़ुशी करता लेकिन रावण ने ऐसा कुछ नहीं किया. जबकि आज देखा जाता है कि बदले की भावना किस तरह से इंसानों को राक्षस बना देता है, रावण जिसे राक्षस कहा जाता है, उसने राक्षस प्रवृत्ति का इस्तेमाल नहीं किया.

एक स्त्री का सम्मान कैसे किया जाना चाहिए यह रावण से सीखना चाहिए. बहन के लिए अपने से बड़े शूरमां से लड़ जाना, शत्रु पत्नी को अपने यहाँ राजमहल में नहीं बल्कि वाटिका में सुरक्षित रखना, बात-बात पर टोकने वाली पत्नी मंदोदरी पर कभी गुस्से में हाथ न उठाना, अपनी नानी का सम्मान करना, विभीषण की पत्नी को अपनी बेटी की तरह महल में रखना जबकि विभीषण शत्रु से जा मिला था, यह रावण के साफ़ चरित्र की ओर इशारा करते हैं.

रावण का पुतला जलाने वाले लोगों से यदि यह सवाल कर लिया जाए कि वह खुद महिलाओं को कितनी इज़्ज़त देते हैं, तो सौ फ़ीसदी लोग कहेंगे कि "पूरी इज़्ज़त देते हैं." किन्तु यह मानना असंभव है कि वह बात-बात पर माँ-बहन की गाली का इस्तेमाल नहीं करते, वे राह चलती लड़कियों की शारीरिक रूपरेखा का एक्सरे नहीं करते, वे घर की महिलाओं पर अपनी मर्जी नहीं थोपते, और तो और रावण दहन करने वाले यही लोग खुद रावण के कथित दुर्गुण से प्रभावित नहीं.

इसलिए इस कलियुग में और बदलते परिवेश में धर्म का सहारा लेकर चक्रवर्ती सम्राट बनने वाले राम की प्रासंगिकता, बल एवं कूटनीति से विश्व विजय करने वाले रावण के समक्ष धुंधली हो जाती है. यह कलियुग है जिसमे हर एक इंसान में रावण का प्रचलित दुर्गुण समाया हुआ है. इस दुर्गुण को ख़त्म करने सद्गुणी रावण का होना समय की मांग है, न की ऐसे राम  की जो 'चार लोग क्या कहेंगे' के चक्कर में अपने मरणासन्न पिता को छोड़कर वन चले गए, जो एक धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को भटकने के लिए वन में छोड़ देता है, जिसकी जीत विभीषण के कारण संभव हुई.

तो आओ, रावण दहन की जगह उन मान्यताओं का दहन करें जो बेड़ियाँ बनकर हमें मानवता के पथ से पीछे ले जा रही हैं और हमें पथभ्रष्ट कर रही हैं. 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सटीक विचार अत्यंत निर्भीकता के साथ प्रस्तुत किए हैं आपने बीना जी । मैं इनसे पूर्णरूपेण सहमत हूँ । काश आपके लेख की अंतिम पंक्ति पर समाज के सभी सदस्य, देश के सभी नागरिक तथा संसार के सभी मानव विचार करें एवं उसे व्यवहार में लागू करें ! वस्तुतः कथनी एवं करनी का भेद जिसे कि अन्य शब्दों में पाखंड कहा जा सकता है तथा जो दोहरे मानदंडों पर चलता है, ही सभी समस्याओं के मूल में है । इस उत्कृष्ट सृजन के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन ।

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  2. आपने बिलकुल सही कहा कि कथनी और करनी का फर्क कभी किसी को पूर्ण मानव नहीं बनने देता है और यही सभी समस्याओं का मूल है. धन्यवाद् माथुर जी, आपने इसे पढ़ा और अपनी राय भी दी.

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