ये कैसी चुप्पी ?
भोपाल गैस कांड का वांछित और यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन का मालिक वारेन एंडरसन का अपने गुनाहों से बच निकलना दुर्भाग्यपूर्ण है । साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण है , तत्कालीन सरकार का उसके सुरक्षित निकलने का रास्ता साफ़ करना । लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार और वर्तमान एवं भविष्य के वातावरण में दूषित गैसरुपी ज़हर घोलने वाला आख़िर क्यों और कैसे तत्कालीन शासन - प्रशासन की दया का पात्र बन गया ?
७ जून ,१० को भोपाल की एक अदालत में आये फैसले में वारेन एंडरसन का कहीं नामोनिशान नहीं है । ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस कंपनी का पूरा कर्ता - धर्ता ही वारेन था और जो उसी कंपनी में हो रही सुरक्षा गडबडियों को नज़रन्दाज करने का कसूरवार था , वही इतनी बड़ी दुर्घटना के परिणामों से बच गया !
इसके पीछे न्यायिक प्रक्रियाओं या न्यायाधीशों को जिम्मेवार ठहराना शायद उचित नहीं , क्योंकि अदालत तो सिर्फ धारा , साक्ष्य व गवाहों पर ही निर्भर होकर फैसला सुनाती है । यदि इसके कोई कसूरवार है तो तत्कालीन शासन - प्रशासन , जिसके दबाव में आकर सही रिपोर्ट दर्ज नहीं हो पाई । इसी वजह से लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार उन तमाम पीड़ितों की नज़रों को धत्ता बताकर न केवल अपनी पहुँच का फायदा उठा गया , बल्कि सरकार से अपनी सुरक्षित निकासी को भी मुकम्मल कर उनका मुंह चिढ़ा गया ।
वारेन एंडरसन के सुरक्षित बच निकलने पर आज भले ही राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप - प्रति आरोप कर रहें हों , जिनके बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी एवं मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का सिर्फ मौन साध लेना अन्य राजनैतिक दलों और जनता के आरोपों पर अपनी मौन सहमति दर्शाती है । लेकिन यहाँ एक और सवाल तब और अब के विपक्षी दलों के लिए भी स्वतः उठना लाज़मी है कि वो तब कहाँ थे एवं क्या कर रहे थे जब वारेन सरकारी सुरक्षा कवच में देश से बाहर निकल रहा था ? अगर यही हो हल्ला तब मचा होता तो शायद आज का मंज़र ही कुछ और होता ! तब न केवल वारेन जेल की सलाखों के पीछे होता बल्कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को उनका न्याय मिल पाता ।
यहीं ये सवाल भी अपने आप आकर खड़ा हो जाता है , कि हे न्यायपालिका ! हे राजनैतिक दलों ! हे तत्कालीन शासन - प्रशासन ! ये कैसी चुप्पी ?
बीनाजी, मैं आपसे सहमत नहीं हूँ । अक्षम्य लापरवाही से हुई इस दुर्घटना का वास्तविक दोषी विदेश मे बैठा एंडरसन नहीं वरन् भारत में बैठा कंपनी का अनुत्तरदायी अमला था जो अपनी तमाम लापरवाही और ग़ैरज़िम्मेदारी का ठीकरा एंडरसन के सर पर फोड़कर साफ़ बच निकलना चाहता है । तमाम तथ्यों को बिना जानेपरखे कंपनी को शहर के बीचोंबीच कारखाना स्थापित करने का अनुज्ञापत्र देने वाला रिश्वतखोर सरकारी तंत्र भी उतना ही बड़ा अपराधी है । पर ये तमाम हृदयहीन और लालची लोग उस एंडरसन को बलि का बकरा बनाकर ख़ुद को पाक़ साफ़ साबित करना चाहते हैं जो केवल मानवीय तथा नैतिक दायित्व के आधार पर हालात का जायज़ा लेने के लिए भारत आया था । उसे धोखे से गिरफ़्तार किया जाना ही ग़लत था । हम भारतीय सदा विदेशियों पर दोषारोपण करके अपनी ग़लतियों और गुनाहों पर परदा डाल देते हैं । यह हमें सरल मार्ग प्रतीत होता है । आत्मसुधार और प्रायश्चित्त का कठिन कार्य कौन करे ?
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र माथुर
असहमति का स्वागत है माथुर जी
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