प्रेम : एक विवादित तथ्य


आज हमारे भारतीय समाज में ग़रीबी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, धन का असमान वितरण एवं राजनीतिक उथल-पुथल के अलावा एक और मुद्दा है , जो अपना ज्वलंत रूप धारण कर चुका है। इस मुद्दे का नाम है, " प्रेम की अवधारणा ।
जी हाँ, सदियों से चला आ रहा ये गतिरोध अब अपनी विकराल स्थिति में आ गया है। "पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ , पंडित हुआ कोयढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥ " हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि कबीरदास ने भले ही अपने दोहे में लिख दिया हो, किन्तु हमारे समाज के कुछ गणमान्य इसे मानने को तैयार ही नहीं। वेद - पुराणों में जगह - जगह पर प्रेम विवाह का उल्लेख मिलता है , जिनमें कृष्ण - रुक्मिणी , अर्जुन - सुभद्रा , दुष्यंत - शकुंतला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आज जो लोग प्रेम विवाह की सार्थकता पर संदेह करते हैं तो निश्चित रूप से वे इन वेद - पुराणों की वास्तविकता पर प्रश्नचिन्ह उठाते हैं।
अव्वल तो प्रेम विवाह को नकारा जाता है , और अगर इसे मान्यता मिल भी जाए तो जाति एवं गोत्र पर सवाल उठने लगते हैं। कुछ गणमान्य लोगों का मानना है की विवाह सजातीय तो हों लेकिन सगोत्रीय न हों। यदि विजातीय विवाह सम्बन्ध होंगे तो संतान वर्ण संकरी पैदा होगी, जिससे मानव सभ्यता का पतन होना आरम्भ हो जाएगा। इसके विपक्ष में एक महत्वपूर्ण उदाहरण दिया जा सकता है, चक्रवर्ती सम्राट भरत का, जो क्षत्रिय राजा दुष्यंत एवं ब्राह्मण कन्या शकुंतला के पुत्र थे। निस्संदेह भरत ने अपने वंश की गौरवगाथा को बढ़ाया ही था।
कुछ लोगों का ये भी कहना है कि सगोत्रीय विवाह नहीं होने चाहिए। इस कथन को मानने और न मानने का अपना अपना नजरिया हो सकता है। मानने का कारण है कि अगर सगोत्रीय विवाह होंगे तो हो सकता है कि रिश्ते में भाई-बहन लगने वाले व्यक्तियों में ही पति - पत्नी का सम्बन्ध हो जाए जो नीति के विरुद्ध है।
दूसरी और यदि सगोत्रीय विवाह के पक्ष में बात की जाए तो घर में ही काम वासना अपनी जगह ना बनाने लगे इसके लिए तो निश्चित रूप से ये ध्यान रखा जाना चाहिए कि कम से कम उनमें रक्त सम्बन्ध न हों। इससे लड़कियों के ऊपर अनावश्यक दबाव नहीं होता, और वो खुलकर जी पाती हैं । कहने का आशय यह है कि कम से कम घर पर तो किसी की कामुक नज़रों से वे बची रहें । अगर युवा एवं बुज़ुर्ग सदस्य इन बातों का अर्थ समझ लें तो निश्चित रूप से प्रेम की अवधारणा को लेकर इनमें जो ठना ठनी है, वो रुक सके।







टिप्पणियाँ

  1. प्रेम तब से है जब स्त्री और पुरुष इस धरती पर आए और विवाह की संस्था तब से है जब से सामाजिक व्यवस्था विकसित हुई । प्रेम तो स्वाभाविक है जिसे रोका नहीं जा सकता । विवाह के संबंध में अलग-अलग मत हो सकते हैं, अलग-अलग समुदाय, क्षेत्रों और संस्कृतियों में अपनी-अपनी परम्पराएं भी होती हैं जिनमें विधि-व्यवस्था को अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । मेरे विचार में इस संदर्भ में लड़के और लड़की दोनों की सहमति, पारस्परिक भावनाओं और व्यक्तिगत प्रसन्नता को ही निर्णय लेते समय सर्वोपरि माना जाना चाहिए क्योंकि जीवन उनका है जिसे उन्हें घुट-घुटकर जीने पर विवश नहीं किया जाना चाहिए । शेष तो आपने कह ही दिया है बीना जी कि पंडित तो वही है जिसने प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लिया हो । जिसने नहीं पढ़ा, वो प्रेम करने वालों की भावनाओं को कैसे समझ पाएगा ?

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  2. वाकई ढाई अक्षरों के ज्ञान की बहुत जरूर है इस देश को..

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