अंतर्द्वंद: एक मनःस्थिति



पेन कुछ लिखने से पहले ही थम गई है।  आज तारीख क्या है, एकपल को याद ही नही आया।   निश्चित तो अभी भी नहीं हूँ कि आज कौन सी तारीख मेरे जीवन से कम हुई है। हंसती हूँ, खिलखिलाती हूँ, सामान्य रहने की हर मुमकिन कोशिश करती हूँ, कुछ हद तक सफल भी हो जाती हूँ, पर कब तक? अंदर से धीरे धीरे खोखली हो रही हूँ। लगता है कि जैसे कुछ भीतर ही भीतर मोम की तरह पिघल रहा है, तपिश भी महसूस कर रही हूँ लेकिन इसका ताप बाहर नहीं आने देती।   

ड़प कर, उलझ कर किसी तरह सुलझने की कोशिश करती हूँ। मन को तो सारी बंदिशों से मुक्त करा चुकी हूँ पर तन को, जो अभी भी मेरे परिवार के ऋणों का बंदी है, उसे कैसे आजाद कराऊँ! बड़े भाई से कुछ दिनों से बहुत नाराज़ हूँ, पर उनकी चिंताएं जो मेरे प्रति हमेशा से रही हैं, उन्होंने जो मेरे लिए किया है वो एक पिता ही अपने बच्चों के लिए कर सकता है, जिनके अहसानों ने मेरी स्वतंत्रता को क़ैद कर रखा है, उससे स्वयं को कैसे उबारु। पिता जी की जागरूक उदासीनता जिस पर अब तनिक भी विश्वास नहीं रहा है, उस पर कैसे मैं स्वयं उदासीन हो जाऊं ! 

माँ, जो मुझे समाज के दायरों में बाँधने का भरसक प्रयास करती हैं, जिन्हे मुझे ज्यादा पढ़ा देने और बढ़ाने का पछतावा होता है और यह भय भी रहता है कि मैं कहीं मर्यादा के बाहर जाकर कुछ अनुचित न कर बैठूं, उन्हें मैं खुद पर यकीन कैसे दिलाऊँ कि मैं उनकी परवरिश में पली बढ़ी हूँ और मुझे अपना भला बुरा समझ में आता है।  यद्यपि वो गलत भी नहीं है समाज की कुरीतियों और बुराइयों को वो मुझसे अधिक समझती हैं फिर भी किसी पूर्वाग्रह में ही डर से जीवन खर्च कर देना भी तो जीवन का मूल्य कम कर देना ही होता है न! 

एक बड़ी बहन, उनके बारे में क्या कहूँ, जिसे खुद अपनी परवाह ही नहीं है।  जिसे जिंदगी को बेहतर ढंग से जीना है पर कैसे ये कुछ पता नहीं।  भाभी जिनका एकमात्र उद्देश्य है हम बहनों की शादी कर भइया को  एक बड़े बोझ को उतार कर इति श्री कर लेना। उनकी इस चिंता का मेरे पास कोई जवाब नहीं।  

मेरी लाड़ली भतीजी मात्र २ वर्ष की, सबसे ज्यादा भय मुझे उसी से लगता है। मैं उसे एक मानव रूप में जीवन जीते देखना चाहती हूँ लेकिंन उसकी परवरिश उसे लड़की बना देने पर आतुर है। काश! उसे यह समझ में आ जाए  कि वह इस दुनिया में जीवन जीने आई है न कि लिंगभेद का निर्वाह करने।  काश! जो समझ मुझे देर से आई, उसे वह समय रहते आ जाए।  

अब बात मेरी, मैंने हमेशा से अपने परिवार की ख़ुशी चाहा है और उनकी सहमति से ही कुछ करना चाहा। यहाँ सहमति के बारे में कहना चाहूंगी कि अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को लेकर इतने ज़्यादा फिक्रमंद हो जाते हैं कि उनकी सहमति की आड़ में धीरे धीरे बड़े होते बच्चे अपनी स्व निर्भरता खोने लगते हैं और फिर कुछ लोग अपना जीवन किसी न किसी की सहमति पर ही व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं (लड़कियों के मामले में अक्सर ऐसा ही कुछ होता है) तो कुछ बाग़ी हो जाते हैं।  मेरे मामले में ये दोनों ही परिस्थितियां क्रमशः रही हैं क्योंकि हर संभव प्रयास करने के बाद भी मैं अपने ही परिवार का भरोसा जीत नहीं पाई। 

पिछले कुछ दिनों के हालातों ने मेरे मानव मन को आहत किया है, स्त्री मन तो शायद कब का तबाह हो चुका है।  घर से बनारस एक अस्तित्व की तलाश में निकली हूँ।  ऐसा पहली बार हुआ है कि बिना सहमति के मैंने कोई निर्णय लिया है।  चिंता इस बात कि नहीं है कि आगे क्या होगा बल्कि इस बात की फ़िक्र है भइया क्या प्रतिक्रिया देंगे।  मन उद्विग्न हो रहा है और पशोपेश में भी है।  काश! भइया ये समझ पाते कि मेरा भी एक स्व अस्तित्व है और निर्णय लेने का अधिकार मुझे भी  है।  खैर इस बात का संतोष है कि मैं अपनी मर्यादा में हूँ किन्तु क्या मेरे अपने मेरा परिवार मुझे कभी समझने का प्रयास करेगा! 

बनारस आने का एकमात्र उद्देश्य है, अपनी पढाई पूरी करना।  जिसमे मेरे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं, चन्दर भइया। चन्दर भइया, जिनके बारे में यदि किसी को बताया जाए तो कोई विश्वास ही नही करेगा कि इस दुनिया में ऐसा भी कोई हो सकता है! एकदम सरल, सहज और सुहृदय। इतना स्नेह कि जो कभी भी किसी के लिए भी कम न हो।  सहोदर न होकर भी अपनत्व इतना कि जिसकी कोई सीमा नहीं। स्त्री-पुरुष, जात-पांत, धर्म-नस्ल की जटिलता से एकदम परे।  सामाजिक बंधन जिन्हे कहीं से भी स्पर्श नहीं करते। सत्य को सत्य कहने और झूठ को झूठ कहने का पूर्ण साहस। जो रिश्तों की मर्यादा और गरिमा को दिल से संजो कर रखना जानते हैं।  सोच जितनी सकारात्मक, व्यवहार उतना ही सरल।  

उन्होंने मुझे बहन कहा ही नहीं बल्कि दिल से माना है।  मेरी तकलीफों में दुखी और मुस्कराहट से खुश हो जाते हैं।  खुश मैं भी हूँ पर क्या भाई-बहन के इस अनोखे बंधन को कोई समझ पाएगा? इसी विश्वास-अविश्वास, स्त्री-मानव के अंतर्द्वंद में फंसी मैं इस उधेड़बुन में हूँ कि जिंदगी की इस गाड़ी को पटरी पर कैसे लाया जाय! खैर जो भी होगा,सो होगा। दिल बोझिल हो रहा है, शाम ढल रही है, तारीख अब तक याद नही आई है।
      

(कहानी काल्पनिक किन्तु दिल के बहुत ही करीब) 

टिप्पणियाँ

  1. मैंने आपकी इस रचना को पढ़ा कम, अनुभूत अधिक किया है बीना जी । जो बातें सीधे हृदय से निकलती हैं, उनकी अभिव्यक्ति ऐसी ही होती है । लंबे समय के उपरांत आपकी लेखनी सक्रिय हुई चाहे किसी भी कारण से हुई हो, यह देखकर मुझे अच्छा ही लगा । अपने भीतर की घुटन को शब्दों के माध्यम से विरेचित कर देना भी सबके लिए संभव नहीं हो पाता है । आप ऐसा कर पाती हैं, यह भी कुछ कम सकारात्मक तथ्य नहीं । और जहाँ तक दो व्यक्तियों के स्नेह और समझ से युक्त पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, मैं यही कहना चाहता हूँ कि उन दोनों का एक दूजे को समझ लेना, अपने मध्य स्थित संबंध की गहनता और वास्तविकता को समझ लेना ही पर्याप्त है । किसी तीसरे का ऐसे विलक्षण संबंध को समझ पाना कठिन ही होता है और समझाने के प्रयास में उन दोनों स्नेहियों द्वारा अपनी ऊर्जा का अपव्यय किया भी नहीं जाना चाहिए ।

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  2. Shukriya Mathur ji, aapki tippani mere liye anmol hoti hain. Aapne bhavanao ko samjha and anubhoot kiya yah mere liye meri badi upalabdhi hi hai. Shukriya

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